हमारी संस्कृति यात्रा के वृत्तांत में श्रीकृष्ण एक प्रेरणादायी, ज्ञानवर्धक और चित्ताकर्षक अध्याय है जो कई दृष्टियों से अनोखा और अप्रतिम है। मधुराधिपति श्रीकृष्ण की सुमधुर अनुभूति और स्मृति युगों-युगों से भारतीय मानस को ऊर्जा देती आ रही है। उनसे जुड़े मथुरा, ब्रज, नंदगांव, बरसाने, वृंदावन, श्रीनाथ जी, बिट्ठल जी, द्वारिका आदि तीर्थ स्थल भक्तों के लिए सजीव बने हुए हैं। इन स्थानों पर नित्य कोई न कोई उत्सव होता है और कृष्ण-रस का स्वाद पाने के लिए लोग आतुर रहते हैं। व्यास, जयदेव, चैतन्य महाप्रभु, बल्लभाचार्य, मधुसूदन सरस्वती, सूरदास, मीरा, रसखान आदि अनेक आचार्यों, संतों, भक्तों और कवियों ने कृष्ण को गीत-संगीत, काव्य, नृत्य, चित्र-कला आदि में सम्मिलित कर कई तरह से लोक-जीवन के स्पंदन का अनिवार्य हिस्सा बना दिया है। प्रभुपाद भक्तिवेदांत से आरम्भ हुआ इस्कान आज अंतरराष्ट्रीय स्तर कृष्ण-भक्ति का संदेश बिखेर रहा है। जन्माष्टमी, कृष्ण-कथा, कृष्ण-लीला और रास-लीला आदि के माध्यम से कृष्ण का अनुभव बासी नहीं पड़ता। वह आज भी ताजा होता रहता है और भारत के विभिन्न भागों में अपरिमित संभावनाओं से भरपूर बना हुआ है।
श्रीकृष्ण परिपूर्णता की प्रतिमूर्ति हैं और पूर्ण होने की शर्त ही है कि वह रचना अपने में सबको साथ लेकर और समेट कर चले। आखिर सर्वसमावेशी हो कर ही तो कोई पूर्ण होने का दावा कर सकता है। पूर्ण रचना में विविध प्रकार के तत्व यहां तक कि जो एक दूसरे के विपरीत भी हों उनके लिए भी जगह होती है । तभी पूर्णावतार श्रीकृष्ण सब कुछ के बीच बिना डिगे अविचलित और अच्युत बने रहते हैं । वे बड़े गतिशील हैं पर आवश्यक मर्यादाओं का ख्याल रखते हैं और यथासम्भव उनका निर्वाह भी करते हैं। वे यह भी जानते हैं कि यदि प्रचलित मर्यादाएं लोक-कल्याण के विरुद्ध हैं तो उनको तोड़ने से पीछे नहीं हटना चाहिए । वे पहले से भिन्न और बड़ी मर्यादा बना कर खड़ी करते हैं और फिर ज़रूरत पड़ने पर उसका भी अतिक्रमण करने से पीछे नहीं हटते। यह सब करते हुए कर्मठ और सत्यान्वेषी श्रीकृष्ण एक अनथक यात्री के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं जिन्हें विश्राम का अवसर नहीं है। वे कहीं अधिक समय ठहरते नहीं दिखते । उनके लिए तो चरैवेति-चरैवेति ही जीवन-सत्य है । वे अविराम चलते रहना उनकी नियति है । अपने व्यवहार और संदेश से श्रीकृष्ण विचार और कर्म की दुनिया को मथ कर क्रांति ले आने की चेष्टा करते हैं। उनके चिंतन का मूल धर्म है जिसका आग्रह जीवन की रक्षा और सवर्धन है। उनके लिए धर्म स्थिर या ठहरा हुआ नियम नहीं है क्योंकि जीवन स्थिर नहीं है।
धर्ममूलक चेतना गतिशील होती है और प्राणवान सत्ता के रूप में समय से संवाद करती है। ऐसे धर्म के विचार का विस्तार करते हुए श्रीकृष्ण अपने नेतृत्व में संस्कृति की स्थापना के लिए नवाचारी उन्मेष का प्रतिमान उपस्थित करते हैं। उनमें ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य और मोक्ष आदि विशिष्ट गुणों का समन्वय है। इसीलिए श्रीकृष्ण पूर्णावतार और स्वयं भगवान के रूप में मान्य हैं। उनका जन्म और कर्म दोनों ही दिव्य हैं। तभी वे सारी सृष्टि की जीवंतता और उसकी लय के अधिष्ठाता बने । पुरुषार्थी श्रीकृष्ण भोगी, विरागी, ज्ञानी और योगी हर रूप में अपने आलोक से लोक को प्रकाशित करते हैं। यदि वे आकाश के देवता इंद्र की जगह धरती के देवता गिरिराज की प्रतिष्ठा करते हैं तो युधिष्ठिर के यज्ञ में अतिथियों के पैर धुलाने और जूठी पत्तल बटोरने तक का काम भी बड़े प्रेम और स्नेह के साथ करते हैं। उनका पूरा जीवन ही भिन्न-भिन्न प्रकार के निजी और सामाजिक के सुखों-दुखों के बीच समत्व लाने की अंतहीन कहानी है। भगवद्गीता का राज-योगी, भक्त, ज्ञानी और कर्म-योगी का प्रतिमान ढूँढने चलिए तो कसौटी पर खरा उतरने वाला चरित्र कृष्ण का ही मिलता है। वे सिर्फ़ सिद्धांत प्रतिपादन ही नहीं करते और न उपदेश मात्र करते हैं वरन वे उसे स्वयं जीते भी हैं। ऐसे ही समत्व योग को भी कुशलतापूर्वक व्यवहार में उतारते हैं। वे स्थितप्रज्ञ जैसी अवस्था के स्वयं अचूक उदाहरण हैं। अपनी अद्भुत लोकोपकारी लीलाओं, प्रिय जनों के प्रेम में पगे श्रीकृष्ण की मुरली की रस वर्षा सबको भिंगो देने वाली है। सांवले , सलोने और असाधारण रूप लावण्य वाले श्रीकृष्ण भागवत धर्म के ऐसे मधुर उपदेष्टा हैं जिनकी छवि नयनपथ में आ जाए तो उसके आगे स्वर्गादि सुख सभी फीके पड़ जाते हैं। उनके भक्त को मोक्ष पाने की भी इच्छा नहीं होती वह सदा भक्त ही रहना चाहता है ।
श्रीकृष्ण श्रेष्ठ की मानवीय परिकल्पना के उत्कर्ष हैं। वे ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय नारायण हैं। योगीश्वर के रूप में जीवनमुक्त हैं अर्थात् मुक्त हो कर जीवन जीने वाले हैं। तभी वह निर्लिप्त, जितेंद्रिय और परम ज्ञानी के रूप में गीता का गान कर सके हैं । वे जाने कितनों से किन-किन परिस्थितियों में जुड़े पर निस्संग भाव से। श्रीकृष्ण अपनी दिव्य प्रकृति को स्पष्ट करते हुए गीता में कहते हैं कि यद्यपि मैं अजन्मा (अनादि) और अविनाशी (अनंत) आत्मा और सभी प्राणियों का ईश्वर हूँ, फिर भी मैं अपनी प्रकृति को वश में कर के अपनी ही शक्ति से जन्म ग्रहण करता हूँ । श्रीकृष्ण के आख्यान और अनेकानेक घटनाएँ भारतीय लोक-मानस में निरंतर गूंजती आ रही हैं। यशोदानंदन, गोपाल, हरि, गोविंद, गिरिधर, राधावर, गोपीजनवल्लभ, बंशीधर, सुदर्शनधारी, पार्थसारथी आदि के विभिन्न रूपों में की गयी कृष्ण की प्रत्येक लीला मन में कुछ इस तरह बैठी है कि वह अलौकिक लगती ही नहीं। श्रीकृष्ण असाधारण हैं क्योंकि वह सबके लिए सुलभ हैं । एक ओर जीवात्मा के रूप में वे सब में विद्यमान है तो दूसरी ओर परमात्मा के रूप में सर्वव्यापी है। वह सूक्ष्म भी हैं और विराट भी । सूक्ष्म शरीरी रूप का प्रकृति के गुणों के साथ बंध कर कर्ता होने के अहंकार की ओर ले जाता है और तब क्लेशों और दुखों का अम्बार लगाने लगता है । इस संकुचित आत्मबोध से उबरने के लिए श्रीकृष्ण गीता में अभ्यास और वैराग्य (अनासक्ति) की दिशा में आगे बढ़ने को कहते हैं ।
मनुष्य अपनी शारीरिक और बौद्धिक सीमाओं का अतिक्रमण करना चाहता है और यदा कदा करता भी है। श्रीकृष्ण अपने अहं का विसर्जन करते हैं पर एकाग्र संलग्नता वाले मन की उत्कट उछाल के साथ स्वयं अपना अतिक्रमण करते रहते हैं । श्रीकृष्ण तत्व विलक्षण त्वरा के साथ लोभ, मोह, ईर्ष्या, भय की सारी सीमाओं को तोड़ता-फलांगता सबसे मुक्त करता है। श्रीकृष्ण के माता-पिता, घर-बार, प्रेमी (भक्त) हर कहीं साझेदारी है। कृष्ण सबके हैं पर उनको एकल सत्ता का प्रभुत्व प्रिय नहीं है। वे निरंतर अपबा सब कुछ लुटाते हुए दूसरे को अपना बनाने, अन्य को अनन्य बनाने पर जोर देते हैं। एक से अनेक की ओर अग्रसर कृष्ण हर पराए, दीन, दुखी और त्रस्त प्राणी को सुखी देखना चाहते हैं। आखिर पूर्णता तभी आ सकेगी जब हम अंदर से खाली हों और सबको समा सकने की इच्छा हो। श्रीकृष्ण अपने आचरण द्वारा दया, दान, दक्षता, विद्या, वीरता, साहस, विनय, क्षमा, धैर्य, संतोष, मैत्री, निरहंकारिता और परदुःखकातरता जैसे मानवीय गुणों का प्रतिमान स्थापित करते हैं । लोक-पुरुष के रूप में श्रीकृष्ण ने आततायियों के ढाए अपमान, राज-मद, दर्प, मिथ्यारोप और अहंकार का दृढता से प्रतिषेध किया और नए युग का सूत्रपात किया । उनका यह रूप आज के कठिन कंटकाकीर्ण हो रहे समय में भी मनुष्यता का मार्ग प्रशस्त करता है।