कितनी रातों से निचोड़ा है उजाला हमने , रात की कब्र पर बुनियाद-ए-सहर रक्खा है

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अवधनामा संवाददाता
ललितपुर। कबीर जयन्ती पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि फिर से स्मरण करें कबीर वाणी दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय, मुई खाल की सांस सों सार भसम हो जाय। उन्होंने कहा कि मध्य कालीन भक्ति सागर की सबसे बड़ी हिलोर संत कबीर, भक्त और भगवान् की दूरी मिटाकर अद्वैतता लाने के मार्ग में आड़े आ रही भेदभाव की उस सामंतीय चट्टान को सबसे पहले हटाना चाहते हैं, जिसके नीचे हजारों सालों से जनसाधारण की सहृदयता का प्रेमिल झरना न जाने कब से सिमट रहा था। धन्य हैं। नानक, रविदास, कबीर, सूर, तुलसी, जैसे संत जिन्होंने सच्ची भक्ति को साकार करने के लिये समता और न्याय आधारित रामराज्य की स्थापना कल्पना के संसार में न करके, इसी धरती के लिए की। धरती पर चलते फिरते हाड़मांस के इंसानों में ही गोचर ईश्वर के दर्शन किए। कबीर की मर्मभेदी नजर में ऐसे करोड़ों करोड़ दुर्बल बना दिये गये बकरी के उस प्रतीक की तरह हैं, जो बेचारी पाती खात है, ताकी काड़ी खाल ? पर समुद्र जैसी संपत्ति पाकर भी जिनकी प्यास नहीं बुझ रही है उन्हीं के हवाले से आधुनिक युग के दूसरे कबीर, गांधी जी को आज के संदर्भ में वैसे ही कहना पड़ा-खबरदार, श्रम द्वारा उत्पादित पूंजी के तुम सिर्फ चौकीदार या ट्रस्टी मात्र हो, पर मालिक हरगिज नहीं बन सकते। क्रान्तिदर्शी महात्मा कबीर का मानना है था कि धरती के सारे स्त्री-पुरुष एक ही चट्टान से तराशे गये हैं। सभी में एक ही परमात्मा का नूर चमचमा रहा है। तब मनुष्यकृत उत्पीडऩ और अन्याय क्यों ? एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से दूर रखने वाले जात पांत और ऊँच- नीच के घृणा के बादल सत्य के सूर्य को कब तक ढके रहेंगे ? कबीर की दृष्टि एकदम साफ है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि लोहार की दुकान में खटाखट मची है, पर मरे बैल की खाल की धौंकनी स्टील को पिघलाकर, सितार में लगाये जाने वाले उन सात तारों को बना रही है, जिसमें मानव एकता, प्रेम और भाईचारे के गीत गाये जायेंगे। जब मरे चाम में इतनी ताकत है तो मनुष्य के जिंदा चाम में बैठे राम के होते हुए किसकी औकात है जो जागे हुए पीड़ितों को और देर तक सताता रहे। कबीर के शब्द मानव-हृदयों में तब तक धड़कते रहेंगे, जब तक न्याय और समता आधारित सपना साकार नहीं हो जाता है। यदि सामाजिक और आर्थिक दशा नींव है तो उस पर निर्मित भवन ही हमारी संस्कृति है। जीवन से इन्कार करने वाले वैराग्य में उनका विश्वास नहीं था। आज की समस्याओं का समाधान वे नकद ही करना चाहते थे। कल या परसों की उधारी पर नही। जिसकी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति कबीर के इस रोड-मैप में दिखाई देती है। साई इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाये।
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