आम बजट के आने से पहले वित्त वर्ष 2019-20 का आर्थिक सर्वेक्षण आ गया है. आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि इसमें अर्थव्यवस्था की असली तस्वीर का ईमानदार आंकलन नहीं है.
संसद के बजट सत्र की शुरुआत के साथ शुक्रवार 31 जनवरी को सरकार ने वित्त वर्ष 2019-20 का आर्थिक सर्वेक्षण पेश कर दिया है. हर साल बजट की घोषणा करने से पहले केंद्र सरकार पिछले वित्त वर्ष का आर्थिक सर्वेक्षण ले कर आती है जिससे पता चलता है कि बीते वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था का क्या हाल रहा. आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 प्रस्तुत करने के बाद केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन ने कहा कि इसका मूल विषय है संपत्ति का सृजन.
सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 के पहले छह महीनों में आर्थिक विकास की दर गिर कर 4.8 प्रतिशत पर आ गई थी और महंगाई दर दिसंबर 2019-20 में बढ़ कर 7.35 पर पहुंच गई थी. लेकिन सर्वेक्षण का पूर्वानुमान है कि साल के आखिरी छह महीनों में विकास दर में वृद्धि हुई होगी जिसकी वजह से पूरे साल की विकास दर 5 प्रतिशत होने का अनुमान है. आर्थिक मामलों के जानकार इस सर्वेक्षण से संतुष्ट नहीं हैं और उनका कहना है कि ये अर्थव्यवस्था की असली तस्वीर का ईमानदार आंकलन नहीं है.
वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा कि इस सर्वेक्षण ने इसी सरकारी टीम द्वारा जुलाई 2019 में प्रस्तुत किए गए आर्थिक सर्वेक्षण को एकदम भ्रामक साबित कर दिया है. तिवारी कहते हैं, “इस सर्वेक्षण ने ये माना है कि इस साल विकास दर दो अंकों में नहीं जाने वाली है और अगर महंगाई और बढ़ी तो विकास की ये दर भी महंगाई की वजह से होगी. इसका मतलब है कि चाहे वित्तीय घाटे का आंकड़ा हो या आमदनी का, सभी आंकड़ों को इसी रोशनी में देखा जाएगा कि अगला साल संकट का साल है.”
इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के मालकम आदिसेषिया चेयर प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि सर्वेक्षण में दिए विकास दर के इन आंकड़ों का मतलब ये है कि सरकार असलियत को अस्वीकार कर रही है. कुमार कहते हैं, “पिछले कुछ महीनों में विकास दर लगातार गिरती रही है और अभी वो 4.5 प्रतिशत से भी कम है. ये अचानक पांच प्रतिशत पर तब तक नहीं पहुंच सकती जब तक आखिरी तिमाही में छह प्रतिशत पर न पहुंच जाए.”
तिवारी बताते हैं कि सर्वेक्षण में कई आयामों को लेकर दीर्घकालिक मूल्यांकन भी किया गया है जिस पर आने वाले दिनों में बहस हो सकती है. जैसे, सर्वेक्षण कहता है कि उदारीकरण के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को ठीक से खोला नहीं गया जिसकी वजह से विकास भी ठीक से नहीं हुआ. इसे एक तरह से ऐसे समझा जा सकता है कि सरकार कह रही है कि अर्थव्यवस्था को और खोलने की जरूरत है नहीं तो नुकसान बढ़ जाएगा.
सर्वेक्षण के मूल विषय ‘संपत्ति का सृजन’ के बारे में तिवारी कहते हैं कि ये एक महत्वाकांक्षी सोच है जबकि असलियत ये है कि इस समय आर्थिक मंदी की वजह से चिंता ये बनी हुई है कि संपत्ति का नष्ट होना कैसे रुके और बचत कैसे हो. इस विषय में कुमार का कहना है कि चूंकि नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी जैसे कई अर्थशास्त्री लगातार और संसाधनों के सृजन के लिए सबसे अमीर एक से दो प्रतिशत लोगों पर संपत्ति कर लगाने की वकालात करते रहे हैं, ये मूल विषय इस अनुशंसा का खंडन करने के लिए रखा गया है.
सर्वेक्षण ने मांग के लगातार गिरने की आलोचना को भी आड़े हाथों लिया है और कहा है कि दिसंबर 2019 में थोक और खुदरा महंगाई दोनों की ही दरों के बढ़ जाने से संकेत ये मिलता है कि मांग बढ़ रही है. तिवारी पूछते हैं कि अगर मांग बढ़ी है तो ये कहां पर दिख रहा है? वो कहते हैं, “आने वाले छह महीनों में अगर महंगाई की वजह से ग्रामीण इलाकों में आमदनी में वृद्धि होती है तब सरकार का कहना सही साबित होगा. नहीं तो ये सिर्फ जीने का खर्च बढ़ाएगी.”
इस बारे में सरकार के निष्कर्ष को सिरे से नकारते हुए कुमार कहते हैं कि महंगाई दर मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों के महंगा होने से बढ़ी है और उसके पीछे मौसम की कठिन परिस्थितियों का हाथ है, ना कि मांग के बढ़ने का. तिवारी आगे कहते हैं कि एक और अहम बात जो सर्वेक्षण में कही गई है वह ये है कि कृषि ऋण माफी की नीति असफल हो चुकी है.