प्रकृति के प्रेम को त्यागने से आई आपदा 

0
127

Disaster caused by abandoning the love of nature

भरत झुनझुनवाला

         भारत का यह जो विशाल भू भाग है वह एक विशाल चट्टान पर स्थित है जिसे “इंडियन प्लेट” कहा जाता है. पृथ्वी के 24 घंटे घूमने से यह चट्टान धीरे धीरे उत्तर की ओर खिसक रही है जैसे सेंटीफ्रूगल मशीन में पानी उपर चढ़ता है|उत्तर में इसे तिब्बत की प्लेट से टकराना पड़ता है| इन दोनों के टकराव से हिमालय में, विशेषकर उत्तराखंड में, लगातार भूकंप आते रहे हैं. पिछले 20 वर्षों में भूकंप न आने का कारण यह हो सकता है कि टिहरी झील में पानी के भरने से दोनों प्लेट के बीच में दबाव पैदा हो गया है जिससे इनका आपस में टकराना कुछ समय के लिए टल गया है जैसे 2 पहलवानों के बीच एक छोटा बच्चा खड़ा हो जाये तो कुछ क्षण के लिए उनकी कुश्ती बंद हो जाती है| दोनों प्लेटों के टकराव से एक ओर हिमालय ऊँचा होता जा रहा है तो दूसरी ओर गंगा इनकी मिटटी को नीचे ला रही है| हिमालय के ऊपर उठाने में पहाड़ कमजोर होते जाते हैं और उनकी मिट्टी गंगा में आकर गिरती है| गंगा उस मिट्टी को मैदानी इलकों तक पहुंचती है| पहाड़ों में जो हमें जो घाटीयां दिखाई पड़ती है वह गंगा द्वारा मिट्टी को नीचे ले जाने से ही बनी है| गंगा द्वारा मिटटी नीचे नहीं लायी जाती तो हिमालय का क्षेत्र भी तिब्बत के पठार जैसा दीखता|  हरिद्वार से गंगासागर तक का समतल और उपजाऊ भूखंड भी इसी मिट्टी से बना है| इसलिए हिमालय पर दो परस्पर विरोधी प्रभाव लगातार पड़ते हैं| एक तरफ इंडियन प्लेट के टकराने से यह ऊपर होता है तो दूसरी तरफ गंगा द्वारा इसकी मिट्टी ले जाने से यह नीचा होता है. इस परिप्रेक्ष में 2013  में चोराबारी ग्लेशियर का टूटना एवं वर्तमान में ऋषिगंगा ग्लेशियर का टूटना सामान्य घटनाएँ हैं और ऐसी घटनायें आगे भी निशचित रूप से घटती रहेंगी| हमारे भू वैज्ञानिक इस टूटन को वृक्षारोपण आदि से रोकने कि फर्जी बात कर रहे हैं|

         हिमालय के इस सामान्य चरित्र में जलविद्युत परियोजनाओं ने संकट को बढ़ा दिया है. 2013 की आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पर्यावरण मंत्रालय ने एक कमेटी गठित की थी जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा थे. इस कमेटी ने पाया कि 2013 की आपदा में नुकसान केवल जलविद्युत परियोजनाओं के उपर एवं नीचे हुआ था| केदारनाथ के नीचे फाटा व्यूंग परियोजना के कारण मंदाकिनी का बहाव रुक जाने के कारण पीछे एक विशाल तालाब बन गया जिससे सीतापुर का पुल डूब गया और हजारों लोग काल कलवित हो गये| इसी प्रकार फाटा व्यूंग के नीचे सिंगोली भटवाडी जल विद्युत् परियोजना के बराज टूटने के कारण बहता पानी नदी के एक छोर से तेजी से निकला और सर्प के आकार में दोनों किनारों को तोड़ता हुआ आगे बहा जिससे हजारों लोगों के मकान पानी में समा गये| जहाँ गंगा का खुला बहाव था वहां कोई आपदा नहीं आई| कमेटी ने कहा कि यह आकस्मिक नहीं हो सकता है कि आपदा का नुकसान केवल जलविद्युत् परियोजनाओं के उपर और नीचे हुआ है| दरअसल जलविद्युत् परियोजनाओं से गंगा का मुक्त बहाव बाधित हो जाता है| जैसा कि उपर बताया गया है कि  पहाड़ अथवा ग्लेशियर के टूटने से जो मलबा और पानी आता है उसको गंगा सहज ही गंगा सागर तक पहुंचा देती है| लेकिन इस कार्य को करने के लिए उसे खुला रास्ता चाहिए ताकि वह सरपट बह सके| रास्ते में कोई रुकावट नहीं जैसे हाथी को सड़क पर चलने के लिए खुले रास्ते की जरूरत होती है. लेकिन जलविद्युत् परियोजनाओं के द्वारा गंगा के इस खुले रास्ते पर अवरोध लगा दिया जाता है और यही आपदा को जन्म देता है|

         वर्तमान में ऋषिगंगा में हुई भयंकर आपदा का कारण भी यही है. उपर ग्लेशियर के टूटने से जो पानी और मलबा नदी में आया उसको नदी सहज ही गंगासागर तक ढकेल कर ले जाती लेकिन वह ऐसा न कर सकी क्योंकि पहले उसका रास्ता रोका ऋषिगंगा जलविद्युत् परियोजना ने जिसे ऋषि गंगा ने तोडा| उसके बाद पानी का रास्ता रोका तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना की बराज ने. वह पानी बराज को तोड़ता हुआ आगे बढ़ा| इस प्रकार पहाड़ के टूटने कि सामान्य घटना ने भयंकर रूप धारण कर लिया| यदि उत्तराखंड में जलविद्युत् परियोजनओं का निर्माण होता रहेगा तो ऐसी आपदाएं आती ही रहेंगी क्योंकि पहाड़ों का टूटना जारी रहेगा और उनका रास्ता बांधो और बराजों से बाधित होने से संकट पैदा होगा ही|

         कौतुहल का विषय यह है कि उत्तराखंड की सरकार इन जलविद्युत् परियोजनाओं को बनाने क्या दिलचस्पी है? इनसे उत्पादित बिजली भी बहुत महंगी पड़ती है. वर्तमान में नई जल विद्युत् परियोजनाओं से उत्पादित बिजली लगभग 8 से 10 रूपये प्रति यूनिट में उत्पादित होती है. मैंने देव प्रयाग के पास प्रस्तावित कोटली भेल 1बी जलविद्युत् परियोजना के पर्यावर्णीय प्रभावों के आर्थिक मूल्य का आकलन किया. मछलियों, बालू, जंगलों, भूस्खलन, मनुष्यों के स्वास्थ और संस्कृति आदि का आर्थिक मूल्य निकाला तो पाया कि पर्यावरण की हानि के मूल्य को जोड़ने से कोटलीभेल परियोजना द्वारा उत्पादित बिजली का उत्पादन मूल्य लगभग 18 रूपये प्रति यूनिट पड़ता है| इनके सामने आज सोलर पावर लगभग 3 रूपये में उपलब्ध है. यद्यपि यह बिजली दिन में उत्पादित होती है लेकिन इसे सुबह और शाम की पीकिंग पावर में परिवर्तित करने का खर्च मात्र 50 पैसा प्रति यूनिट आता है. इसलिए आर्थिक दृष्टि से भी ये जल विद्युत् परियोजनायें पूर्णतया अप्रासंगिक हो गयी हैं. लेकिन इन योजनाओं को बनाने में सरकार को 12 प्रतिशत बिजली मुफ्त मिलती है. एक यूनिट बिजली का दाम 4 रूपए मान लें तो उत्तराखंड सरकार को 48 पैसे मुफ्त मिलते हैं जबकि जनता को 18 रूपए अदा करने पड़ते हैं| इसके अलावा इन परियोजनाओं में पर्यावरण स्वीकृति, जंगल स्वीकृति, भूमि अधिग्रहण, बिजली लाइसेंस इत्यादि के टंटे होते हैं जिसके कारण उत्तराखंड सरकार इनको बनाना चाहती है|

         आश्चर्य यह है कि प्रकृति का पूजन करने वाली भारतीय संस्कृति जिसका एक विशेष मंत्र है “पृथ्वी: शांति, आपः शांति, वनस्पतिः शांति:” वह संस्कृति आज हमारी धरती, पानी और वनस्पति को नष्ट करने पर तुली हुई है. इसकी तुलना में भोगवादी कहलाने वाली अमरीकी संस्कृति ने तमाम क्रियाशील जलविद्युत् परियोजनाओं को सिर्फ इसलिए हटा दिया है कि वहां के लोग खुली और अविरल बहती हुई नदी में स्नान करना, नाव चलाना और मछली पकड़ना चाहते थे| समय आ गया है कि हम भी थोडा अन्तर्मुखी होकर विचार करें कि हम अपनी संस्कृति से कैसे विमुख हो गये हैं?  हम क्योंकर केवल विकास का आभास पैदा करने के लिए अपने पहाड़ों, अपने प्रकृतिक संसाधनों, अपनी संस्कृति और अपनी जनता को कष्ट पहुँचाने को प्रतिबद्ध हैं?

Also read

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here