मौत की सजा पर बहस

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एस. एन. वर्मा

मौत की सजा को आज के सभ्य और विकसित समाज में बर्बरता मानी जा रही है। आज विज्ञान और तकनीक बहुत आगे बढ़ गये है। इसलिये मौत की सज़ा देने के तरीके पर भी बहस चल पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस पर बहस कराने की राय दी है। अभी तो मौत की सज़ा पाये मुजरिम को गले में रस्सी डालकर लटका कर फांसी दी जाती है। पर यह अमानवीय होता है फांसी पर ले जाया जा रहा व्यक्ति हृदय विदारक हरकते करने लगता है, अपने कपड़े भी डर से गन्दा कर लेता है। लटकाने पर उसका तड़पना भी बडा हृदय विदारक दिखता है। सिद्धान्त यह है कि सजा आदमी को सुधारने के लिये दी जाती है न कि उसे तकलीफ देने और तड़पाने के लिये दी जाती है। मौत की सज़ा जो अभी तक सबसे क्रूर सजा है वह सुधार कहां ला पा रही है। बलात्कार के लिये फांसी की सज़ा है पर बलात्कार कहां कम हो रहा है। यहां तक की छोटी छोटी बच्चियां और वृद्धा औरते भी इसका शिकार हो रही है।
इसलिये मौत की सज़ा, इस सज़ा के देने के तरीके में सुधार की अवश्यकता है। कोर्ट इस मामले में सरकार से बहस कराने के लिये इसलिये कहा रहा है क्योकि सज़ा का तरीका तय करने का अधिकार विघायिका को है। इसलिये विघायिका की जवाबदेही बनती है। न्यायपालिका ने इसीलिये पहले ही साफ कर दिया है कि इस मामले में वह आदेश जारी करने नहीं जा रहा है। पर यह भी याद रखने की बात है कि 1983 में शीर्ष कोट में भले में लटका कर फांसी देने के तरीके को सही बताया था। पर तब से जमाना काफी आगे बढ़ गया है हर चीज का तरीका काफी कुछ बदल गया है। यह क्रम तो शाश्वत जारी रहेगे। क्योंकि विकास का यह प्रकृतिक नियम और प्रवाह है।
बहस में आगे बढ़ने से पहले मौजूदा फांसी देने की सज़ा और तरीका पर विचार करना होगा और परखना होगा कि कानून और संविधान सम्मत है या नहीं। वह कानून और संविधान की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं। दुनियां के दूसरे मुल्कों में भी इसे लेकर मन्थन चल रहा है कुछ लोग तो यह भी कह रहे है मौत की सज़ा होती ही क्यों है। यानी वे सज़ा से मौत को एकदम हटा देने के पक्ष में अपनी राय दे रहे है। यही नहीं दुनिया में ऐसे मुल्कों की संख्या ज्यादा है जहां सज़ा के तौर पर फांसी का प्रावधान ही नहीं है पानी वहां फांसी की सजा है ही नहीं। इन लोगों का तर्क यही है कि सज़ा आदमी को सुधारने के लिये ही जाती है न कि उन्हें तड़पाने के लिये। इसलिये अगर किसी मुजरिम में सुधार के लंक्षण दिखते है तो खुले समाज में तो एकाएक नहीं छोड़ जा सकता है क्योकि हो सकता है उसकी अपराधी प्रवृत्त जाग उठे इसलिये सुरक्षित और वाजिब कदम यह होगा कि उसे अन्तिम क्षणों तक कैद में ही रक्खा जाये।
पर यह हर देश का अपना मसला है और वह अपने और समाज के हिसाब से तय करता है कि ऐसे मामलों में क्या करे और कैसे करे। मौत की सजा रक्खे या खत्म कर दें। अपने यहां भी मौत की सज़ा अजीवन कैद में प्रायः बदल दी जाती है।
इस दिशा में बहस कराने का आग्रह करके सुप्रीम कोर्ट में यह चाहता है कि अगर मौत की सज़ा दी जाय तो इस तरह की दी जाय कि मानवीय गरिमा पूरी तरह कायम रहे। इन तमाम बातें पर बहस और अध्ययन के बाद ही पता चलेगा कि मौजूदा फांसी देने का तरीका सबसे कम तकलीफ देह है या मृत्युदन्ड देने के लिये कोई और उपाय विकसित किया जाय। मतलब हर हालत में मृत्यु की गरिमा बनी रहे। इन सब उठापटक के अगर कोई दूसरा तरीका बेहतर लगता है तो मौजूदा फांसी देेने की सज़ा असंवैधानिक घोषित कर दिया जायेगा और फिर विघायिका नये तीरीके की पुष्टी करेगी। शीर्ष अदालत ने सही समय पर यह मुद्दा उठाया है जिससे सही इन्साफ मिलेगा। क्योकि आजकल द्रुर्दान्त अपराधियों से निपटने का आसान तरीका इनकाउन्टर निकल आया है। इससे अपराधी भले खत्म हो जाता है अपराध तो होता ही रहता है। कोर्ट की इस पहल से सही इन्साफ मिलने की उम्मीद बनती है।

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