राज्यपालो और सरकारो का टकराव

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एस. एन. वर्मा

सरकारे जनता द्वारा निर्वाचित होती है इसलिये वे जनता की आवाज होती है। राज्यपालो की नियुक्ति सरकारे ही करती है। एक औपचारिकता है सरकारे जो प्रस्ताव या विघेयक राज्यपाल के समक्ष औपचारिक स्वीकृति के लिये भेजे उस स्वीकृति दे लौटाये अगर राज्यपाल किसी विघेयक या प्रस्ताव से सहमत नही है तो वो सरकार को टिप्पणी के साथ लौटा सकते है। पर सरकार जब दोबारा उस मामले को राज्यपाल के पास भेजती है तो उस स्वीकृति देना राज्यपाल का कर्तव्य है। जिन राज्यों में केन्द्रीय सत्ता पक्ष वाली सरकारे है वह तो नहीं पर जिन राज्यों में केन्द्रीय सरकार के पार्टी वाली सरकारे नहीं है वह अक्सर राज्य सरकार और राज्यपाल से तनातनी देखने को मिलती है। लोकतन्त्र के लिहाज से यह उचित नही है। राज्यपाल तो वास्तव में एक सजावटी कुर्सी है। पर राज्यों में राज्य सरकार की अनिश्चिता बढ़ जाती है विधायक दलो मे ंबंटकर सरकार बनाने, सरकार गिराने का दावा करने लगते है तब राज्यपाल की जिम्मेदारी बढ़ जाती है और उसके विवेक की परीक्षा होती है। कई राज्य सरकारों का आरोप है कि राज्यपाल मामले को दबाये बैठे रहते है। विधानसभा सत्र बुलाने और वाइस चान्सलर की नियुक्तियों को लेकर विवाद है। राज्यों का कहना राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विघेयकों को मन्जूरी देने में टाल मटोल करते है। तामिलनाडु केरल राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल सरकारो की शिकायत है कि राज्यपाल कार्यालय के व्योहार से राज्य सरकार काम प्रभावित हो रहा है। तेलंगना मुख्यमंत्री तो राज्यपाल के टालमटोल से क्षुब्ध होकर सुप्रीम कोर्ट पहुच गये है। वहां सितम्बर से लेकर अब तक सात बिल राज्यपाल के पास पड़े हुये है। अतीत में कई ऐसे केस हुये है जहां राज्यपाल ने बेकार की दखलन्दाजी की है। चुनी सरकार को गिरवाकर अपने चाहत वाली पार्टी की सरकार बनवा दी है।
जब चुनी हुई सरकार अत्पमत में आ जाती है, या विधयकों के दो गुट आपस में लड़ झगड़ कर अपने गुट को बहुमत में बताते है तब राज्यपाल निर्णायक भूमिका निपटाते है। हालाकि कोर्ट का कहना है ऐसे मामलों में फ्लोरटेस्ट करा दिया जाय। पर राज्यपाल अपने विवेक इस्तेमाल कर निर्णाय लेते है। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है रहा महाविकास अधाड़ी सरकार गिरने को लेकर राज्यपाल पर कठोर आक्षेप लगाये गये है। यही नहीं इसे लेकर मुख्य न्यायधीश और सुप्रीम कोर्ट को ट्रोल करने का अभियान सोशल मीडिया पर चल निकला है। परेशान सांसदों ने कहा सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायधीश के खिलाफ जिस गिरे स्तर की टिप्पणी की गई है उनके खिलाफ सख्त कार्यवाई होनी चाहिये। कानून मंत्री ने पुराने सेवानिवृत्त जजो द्वारा कोर्ट और सरकार को लेकर जो टिप्पणियां की गई है उसे गम्भीरता से लिया है और कहा सख्त कानूनी कार्यवाही की जायेगी।
ध्यान देने की बात है कि महाराष्ट्र सरकार के गिरने को लेकर कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा कि किसी पार्टी के आन्तरिक मतभेद या असन्तोष की खबरे फ्लोरटेस्ट का आधार नही बनती है। कोर्ट ने यथा स्थिति बहाल करने पर कहा है कि जो सरकार विधानसभा में बहुमत साबित करने से पहले हट गई उसे कैसे बहाल किया जा सकता है। केस अभी चल रहा है निर्णय अभी नहीं आया है।
राज्यपाल से कुछ राज्य सरकारो का असन्तोष कई मुद्दो को लेकर है पर सबसे ज्यादा आक्षेप टाल मटोल वाली बातो को लेकर है। साथ ही पद का दुरूपयोग का भी है। झारखन्ड में मुख्यमंत्री पर चुनाव आयोग राय छह महीना से राज्यपाल कार्यालय में पड़ी हुई है। पिछले महीने कई राज्यों के राज्यपाल बदले गये कुछ का स्थानान्तरण भी हुआ। पर कोई खास सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। राज्यों के सम्बन्ध राज्यपाल के साथ सहयोग वाले नहीं दिख रहे है। पद की गरिमा से लोगों का मोह भंग हो रहा है। बेहतर होगा कि राज्यपालो के बुलाने के बारे में सही लोगो के बीच परिचर्चा करके नई व्यवस्था बनाई जाय। हमारे लोकतन्त्र की जड़े बहुत गहरी है। हमें अपने लोकतन्त्र पर गर्व है। टकराहट सहयोग में बदलना चाहिये।

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