एस.एन.वर्मा
मो.7084669136
अंग्रेजो ने आईपीसी 124ए हिन्दुस्तानियों के असन्तोष का कुचलने के लिये ही बनाया था। जिसका उपयोग आज खुल्लमखुल्ला राजनैतिक प्रतिस्पर्धियों को दबाने के लिये ऐसी किया जा रहा है आम धारणा बनती जा रही है। इस समय सुप्रीमकोर्ट में इस कानून को खत्म करने के लिये पीटीशन पर बहस चल रही है जिसे राजद्रोह का केस कहा जाता है उसे खत्म करने की गुहार लगाई जा रही है। यह कानून उन लोगों पर लगाया जाता है जिन्हें राजद्रोह के जुर्म के लिये दोषी पाया जाता है। इस कानून के तहत वह सजा का भागी है जो शब्दो क्रिया द्वारा कोशिश करता है लोगों में घ्रिरणा अवहेलना और दुश्मनी भड़काने का सरकार के खिलाफ। इस कानून के तहत तीन साल से लेकर अजीवन कारावास का प्रावधान है। अवहेलना और दुश्मनी ऐसे शब्द है जिनके अर्थ का विस्तार बहुत जादा है। यहां तक की सही आलोचना और असन्तोष भी इस निर्मम कानून के तहत लाये जा सकते है और लायेजा रहे है। यही वजह है कि आज भारी संख्या में लोग देशद्रोह के इल्जाम में अन्दर है।
अंग्रेज सम्राज्यवादियों का यह कानून उनके लिये एक बहुत ही सहज और आदर्श कानून हथियार था हिन्दुस्तानियों के अजादी के अन्दोलन को दबाने के लिये। इस कानून के तहत अंग्रेजों ने इस कानून का उपयोग कर तिलक गांधी जैसे आजादी के महान नेताओं को कैद में रक्खा। इन लोगों के राजनैतिक लेखों और भाषणों के खिलाफ अंग्रेजों के पास इससे सरल कोई कानून नहीं था जो उनके खिलाफ लगा सकते थे। क्योंकि इस कानून के तहत सही अन्दोलन चलना वाजिब असन्तोष भी राजद्रोह की श्रेणी में आता है।
आज के माहौल में लोगों की धारणा बन रही है के सरकार अपने राजनैतिक प्रतिस्पर्धियों को दबाने के लिये और कोई बहाना नहीं खरेज पा रही है तो इस कानूनो को उन पर थोप रही है। इस तरह के हालात में सुप्रीमकोर्ट को ऐसा निर्णय देना चाहिये जिससे इस कानून का दुरूपयोग रूके। बेहतर होगा कि इस कानून पूरी तरह रद्द कर दिया जाये और राजद्रोह की परिभाषा सही परिप्रेक्ष में गढ़ी जाय जिससे सचमुच राजद्रोह करने वाले नये बने कानून के अन्दर आ सके। आजकल आतंकी और कुछ दूसरे देश के भटके हुये लोग अपने इच्छित देश में घुस कर छिपे तौर से राजद्रोह कर रहे है और वहां के नागरिकों को साम दाम दन्ड और भेद से अपने ओर आकर्षित कर राजद्रोह के लिए उसका रहे है। इसलिये राजद्रोह कानून ऐसे लोगो को सजा देने के लिये जरूरी है। पर सही राजद्रोही पर ही यह कानून लगे न कि बदला लेने की भावना से वाजिब आलोचनाओं असन्तोष के लिये लगे। राजद्रोह कानून ऐसा बनाया जाय जो अवान्छित व्यक्तियों पर लागू न हो सके।
साठ साल पहले 1962 में केदारनाथ सिंह फैसला आया था। जिसने राजद्रोह कानून में कुछ काटछांट की कोशिश की थी जिससे झूठे आरोप गढ़ लोगों को इस कानून के तहत लाकर परेशान न किया जा सके। पर यह कोशिश कोई प्रभाव नहीं डाल सकी। और राजद्रोह का इल्जाम मन चाहे लोगों पर लगता रहा है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट बार-बार ज़ोर देकर कहती रही है कि सरकार की आलोचना राजद्रोह की श्रेणी में नहीं आता है। पर यह सन्देश सरकार और प्रशासन तक नहीं पहुंच सका है। क्योंकि देखने में आ रहा है कि थाना और सिपाही उच्च अधिकारियों के निर्देश पर आदेशित लोगों पर यह कानून मनमाने ढंग से चिपका रहे है क्योकि आईपीसी में यह कानून बहुत ही आसान औजार है राजनैतिक, व्यक्तिगत प्रतिस्पर्घियों से निपटने के लिये। अभी राजद्रोह संज्ञे और गैर जमानती है। कोई अपराध न किया गया हो तो भी यह कानून किसी पर भी चिपकाया जा सकता है। यहां तक कि ऐसे सियासी इजहार पर भी जिसके तहत स्वतन्त्र भाषण का कानूनी अधिकार प्राप्त है।
राजद्रोह का मुकदमा लेखकों, कार्टूनिस्ट यहां तक आम नागरिकों पर भी थोपा गया है। यही नहीं तामिलनाडु में कोडनकुलमू आणविक प्लान्ट के खिलाफ लोगों द्वारा विरोध किये जाने वाले पर भी राजद्रोह का मुकदमा ठोका गया है। आजकल निजी हैसियत से निजी राजद्रोह की शिकायतें आने का रूख दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। कोर्ट को इस पर ध्यान करने की ज़रूरत है।
सुप्रीमकोर्ट से अपेक्षा है कि इस निर्दयी कानून में काट छाट कर इसे सही दिशा निर्देश देकर सही दिशा की ओर निदेर्शित करेगा।