एस.एन.वर्मा
जजो की नियुक्ति के लिये बनाये गये कलीजियम को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच कुछ गर्मागर्मी चल रही है। सरकार कलीजियम व्यवस्था से खुश नही है तो सुप्रीम कोर्ट नैशनल जूडिशियल अपाइन्टमेन्ट कमीशन से खुश नही है। दोनो एक ही मकसद जजो की नियुक्ति को लेकर बने है। इन दोनो संस्थाओं के बनने से पहले जजो की नियुक्ति के लिये एक निर्धारित प्रक्रिया थी। इसके अनुसार कानून मन्त्रालय जजो के नाम भेजता था। मुख्य न्यायधीश नामों पर अपना विचार रखते थे। नाम चुन लिये जाने के बाद राष्ट्रपति के पास जाता था। राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के जजांे की नियुक्ति होती थी।
1993 में नौ जजों की बेन्च ने एक आदेश पारित किया इसके तहत जजों की नियुक्ति के लेकर पहले का सिस्टम को बदल दिया गया। कालीजियम सिस्टम को स्थापित किया गया। अब सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कली जियम के माध्यम से शुरू की गई। इसके तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के लिये अलग-अलग काली जियम बनाये गये। दोनो के काम करने का तरीका अलग-अलग है। सरकार ने काली जियम सिस्टम को बदलने के लिये काफी प्रयास किया पर सफल नही हो पाई। तब सरकार ने 2014 में नेशनल जुडिशियल अपाइन्टमेन्ट कमीशन बनाया। इसके तहत हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिये कमीशन होगा जो नामो पर अन्तिम मुहर लगायेगा। कमीशन के सदस्य होगे मुख्य न्यायधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ट जज, कानून मंत्री और दो जानी मानी हास्तियां।
जबसे कालीजियम आया तभी से सरकार और जूडिसियरी में जजो की नियुक्ति लेकर तकरार चलता रहा कि जजों की नियुक्ति में किसका दखल होना चाहिये। 90 की दशक के शुरूआत से ही तकरार चालू है। हाल में कानून मंत्री किरन रिजुजू का एक बयान आया है अपने नामो को नामो तुरन्त मन्जूर करने के लिये कलीजियम नही कह सकता। अगर ऐसा है तो उन्हें खुद नियुक्ति कर लेनी चाहिये। यह बयान कोर्ट और सरकार के बीच की तल्खी का बयान करता है। कोर्ट का कहना है कलीजियन नामो को भेजता है तो सरकार पास अनिरिति महीनो पड़ा रहता है। फिर सरकार रद्दो बदल कर के भेजती है। नामो के बारे में अस्वीकृत दिखाती है। कोर्ट उन्ही नामो को फिर भेज देता है। इसी तरह की रस्साकशी चलती रहती है। जजों की नियुक्ति में असाधारण विलम्ब होता है। कोर्ट की धारणा है कि इसी वजह से अच्छे वकील जज बनने के लिये तैयार नही होते है। संविधान में कही भी कलीजियन का नाम नही आया है।
सरकार अपनी नाखुशी कलीजियम को लेकर जाहिर करती रहती है। पर पूर्व जज कलीजियन के पक्ष में बयान दे रहे है।
कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका सभी लोकतन्त्र की बहुमूल्य निधि है। इनमें प्रेस और जुड़ जाता है। इसमें कार्यपालिका और विधायिका जनता के प्रति उत्तरदायी है। इससे सोच बनती है कि लोकतन्त्र में जनता सबसे ऊपर होती है इसलिये सेच बनती है कि सभी व्यवस्थाओं को जनता के प्रति जवाब देह होना चाहिये।
पर संविधान एक स्वतन्त्र न्यायिक व्यवस्था की बात करता है। इसलिये यह जरूरी होता है कि जजों की नियुक्ति में किसी भी तरह की कही से भी दखलन्दाजी नही होनी चाहिये। जूडिसियरी जनता प्रति जबावदेह नही हो सकती है। उसकी जबावदेह न्याय के प्रति होती है। न्याय जनता की आकांक्षा से नही संचालित होता है। वह देश के कानून से संचालित होता है। वह निर्णाय सबूत और दलील के आधार पर देता है। इसलिये न्यायपालिका का स्वतन्त्र होना आवश्यक शर्त होती है। वैसे भारत की न्यायपालिका और यहां जजों की विद्वता का लोहा दुनिया मानती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि सबसे आदर्श लोकतन्त्र जहां माना जाता है सरकारी हस्तक्षेप कम से कम हो। हर स्वायत्त संगठन में सरकार को सरकारी हस्तक्षेप से अपने को दूर रखने की कोशिश करनी चाहिये। सरकार कानून बना सकती है। पर कानून की व्याख्या तो कोर्ट ही करेगा। जितने ही अच्छे ओर मेघावी लोग कोर्ट में जायेगे कोर्ट का काम उतना ही निखरेगा। यो भी कोर्ट में अनिर्णित मुकदमों का अम्बार लगा हुआ है। हर स्तर पर सरकारी हस्तक्षेप गति को शिथिल कर देता है।