एस.एन.वर्मा
एक तवायफ ने अख़्तरी से शुरूआत कर सम्मनित बेगम अख़्तार बन गई। तवायफ कितनी भी ऊंचे पाये की हो लोग हिक़ारत की नज़र से देखते है। बेगम अख़्तर को इसका अहसास था। तवायफ अख्तरी के रूप में वे खुद अपनी नज़र में गिरी महसूस करती रही। सारे शान शौकत, चाहने वाला की भीड़ और रूपये पैसे से भरपूूर जिन्दगी उन्हें सकून नहीं दे रही थी। जिन्दगी से बाहर निकलने की तड़प थी। बड़े-बड़े जमींन्दार, नवाब उन्हें पत्नी बनाने का आफर देते थे। पर उनकी साफ शर्त थी की वा उप पत्नी बन कर नहीं रहना चाहती न रहेगीं। बेगम अपने व्याक्त्वि को बहुत शालीन बना कर रखती थीं। डेªस भी सलीका का कीमती रहता था। गहने भी पहनती थीं पर सबसे ज्यादा आकर्षित उनके हीरे वाली नाक की कील करती थी। बात चीत का सलीका उठने बैठने का तरीका इतना शालीन और सुस्कृत रहता था कि कोई हल्की-फुल्की बाते करने का हिम्मत नहीं कर पाता था। वह प्रोग्राम के लिये बड़े-बड़े राजाओं, महराजाओं, नवाबों, जमीन्दारो के यहां जाती थी। पर उनके ठहरने और सोने का इन्तजाम उनकी महिलाओं से अलग रहता था। महिलायें पर्दे की ओट से उनके गाने सुनती थी। वह नृत्य नही करती थी। यह सब उन्हें कचोटता था। वह इज्जतदार घर की इज्ज़तदार बीवी बनने के लिये तड़पती रहती थी।
खुदा ने उनकी शरीफ घर में जाने की तड़प सुन ली। उनको इंग्लैन्ड रिटर्न नवाबी घराना मिला। पहली पत्नी के मृत्यु के बाद उन्होंने बेगम अख्तर से शादी की और अख्तरी बेगम अख्तर बन गई। उस समय का पारिवारिक माहौल जैसा होता था, महिलाओं का कमरा अलग हुआ करता था। घर के प्राणियों के अलावा बाहरी लोगो का जनानी खाने में प्रवेश वर्जित रहता था। महिलायें भी पुरूषों के बैठको में नहीं जाती थी। बेगम अख्तर खुले में रहने वाली, सबके बीच उठने बैठने वाली, शालीन हंसी, मजाक में रस लेने वाली पर्दे में शौहर के घर आकर वहां के हर रवायत को कठोरता से पालन करती रही है क्योकि उन्हें जो इज्जत चाहिये थी, एक शरीफ इज्ज़तदार की मिल गई थी। अकेली पत्नी होने की चाहत थी वह पूरी हो गई थी।
पर जिस खुले वातावरण में बेगम को रहने की आदत थी। हर किसी से मिलने जुलने की आजादी थी, महफिलों में गाने की आजादी थी उस पर रोक लग गई थी। बेगम अन्दर-अन्दर पिजड़े में बन्द चिड़िया की तरह घुट रही थी पर जो इज्जत पाई थी वह सबसे प्यारी थी। वह घुटने की वजह से बीमार रहने लगी। सेहत बहुत गिर गयी। बिल्कुल पीली पड़ गई हड्डी का ढांचा दिखने लगी। चिन्तित शौहर उन्हें डाक्टर के पास ले गये। डाक्टर पूरा केस सुना दवा के साथ शौहर को हिदायत दी इन्हें गाने की इजाजत दीजिये। शादी के बाद महफिलों में और संगीत कार्यक्रमों में बेगम का गाना बन्द हो गया था। गाने की इजाजत मिलने के बाद फिर वह हरी भरी हो गई है। शौहर की एक शर्त थी कि वह लखनऊ में नहीं गायेगे।
बेगम बाहर जाकर गाती होटलो में ठहरती वहां उनके जान पहचान वाले शायर, संगीतकार आते, महफिले कहकहे लगते। बेगम कीमती सिगरेट और शराब की शौकीन थी। उनके साथ एक बार मेरा भी साबका पड़ा था। तब मैं मध्यप्रदेश में सरकारी सेवा में था। जबलपुर की बात है। सरकारी आयोजन था। कलाकारों को ठहराने उनके सुख सुविधा की जिम्मेदारी हमारे ऊपर थी। वह जबलपुर आकर बताये होटल में जाकर ठहर गई। मैं औपचारिकता निभाने के लिये पूछने गया कोई तकलीफ तो नहीं है, कुछ और चाहिये। उनके जाने का प्रोग्राम पूछना था किस टेªन में रिजेरर्वेशन कराया जाये। मैं जब उनके कमरे में पहुंचा तो देखा एक हत्थ में 555 सिगरेट सुलग रही थी एक हाथ में व्हिस्की का गिलास था। परिचय के बाद उन्होंने मुझे भी आफर दिया मैने विनम्रता से मना किया नहीं हमें इनका शौक नहीं है। बात चीत में जब सुनी कि मैं लखनऊ का हॅू तो खुशी से उठकर मुझे गले लगा लिया। कहा वहां तो मेरा भी घर है। बहुत ही जिन्दा दिल महिला थी।
बेगम ने जिन्दगी में कई रोल अपनाये। गायिका, तवायफ, फिल्म अभिनेत्री, रिकार्डिंग आर्टिस्ट, गायिका के रूप में गज़ल के साथ-साथ ठुमरी और दादरा भी उसी कुशलता से गाया। उन्हें उर्दू शायरी की अच्छी समझ थी। वे कठिन उर्दू भाषा वाली गजलों से परहेज किया। जिसे आम आदमी भी समझ सके आसान शब्दावली वाले ग़जलों को चुना। क्लासिकल शायरो के गज़लों कोे बहुत सरल और आकर्षक ढंग से गाया। ऐसे शायरों की गज़ले गा कर उन्हें अमर कर शोहरत की बुलन्दी पर पहंुचा दिया। गज़ले को दिल में उतर जाने वाले अन्दाज़ से पेश करती थी। जो सरस के साथ-साथ सभी के गा सकने वाली होती थी। अपने गज़लों की धुने खुद ही तैयार करती थी।
कैफी आजमी जब 11 साल के थे तब एक गज़ल लिखी थी इतना तो जिन्दगी में न किसी के खलल पड़े हसने से हो सुकून रोने से कल पड़े ग्यारह साल के लड़को को कौन जानता है। पर यह गजल गा कर उनको अमर कर दिया। ऐसे कई किस्से है। एक कहानी सुदर्शन फाकिर की है। एक बार बेगम जावन्धर रेडियो स्टेशन प्रोग्राम देने गयी। सुदर्शन काफिर वहां काम करते थे। सुदर्शन काफिर ने एक गज़ल बेगम को नज़राने के तौर पर दी। बेगम ने कुछ घन्टो में उसकी धुन तैयार कर वही गा दिया। मशहूर गज़ल है कुछ तो दुनियां की हालात ने दिल तोड़ दिया और कुछ तो तल्खिहालात ने दिल तोड़ दिया। सुदर्शन काफिर की यह गज़ल आज भी लोग बड़े चाव से बेगम की आवाज में सुनते हैं। बेगम ने जिसे गा दिया वह अमर हो गया। कई अनजान शायरों की गज़ले गा कर उन्हें लाइम लाइट में ला दिया। बड़ी कशिश भारी आवाज थी उनकी उतनी ही दोस्ती वाली मुस्कान थी जिससे श्रोताओ से तुरन्त जुड़ जाती थी।
कुछ शायर तो इसलिये यादगार बन गये क्योकि उन्हें बेगम अख्तर ने गाया है। आसान शब्दो वाले दिल पर तुरन्त असर करने वाले गज़ली चुनती थी फिर अपनी जादुई आवाज से एक तिलम्मी जहान रच देती थी। उनकी गायी कुछ मशहूर गज़ले इस प्रकार है। शकील बदायूनी की श्एय मोहब्बत तेरे नाम पेे रोना आयाश्। बहज़ाद लखनवी की दिवाना बनाना है तो दिवाना बना दें।श् अब छलकते हुये सागर नहीं देखे जातें अहमद जलीली।श् सख्त है इश्क की हर रह गुजरश् शमीम जयपुरी।
बेगम ने ठुकरी और दादरा भी गा कर लोगो को खूब रिझाया। आज भी लोग उसके रिकार्ड पर चाव से सुनते है। एक संगीत समीक्षक कहना है कि पुरबिया ठुमरी के तीन मशहूूर गायिका है रसूलन बाई, सिंद्धेश्वरी बाई और अख्तरी बाई यानी बेगम अख्तर इनकी बाराबरी आज तक कोई नहीं कर पाया है। रसूलन बाई की मशहूर ठुमरी है बारे सैयां फुलगेनवां न मारो। सिद्धेश्वरी बाई की ठुमरी हैश् रस के भरे तोरे नैन सवरियां और बेगम अख्तर की ठुमरी है कोयलिया मत कर पुकार समीक्षक महोदय का कहना है पुरबिया ठुमरी की ये तीन बेश कीमती बोल है। इन तीनो ठुमरियों को छोड़ कर बाकी सारी ठुमरियां नष्ट भी हो जाये तो ये तीनों ठुमरी को जिन्दा रक्खेगी। यानी बेगम अख्तर ने जिस भी गज़ल, ठुमरी, दादरा को छुआ वह नगिना बन गया। बेगम से एक नई लड़की गज़ल सीखने आई तो बेगम ने पहले उससे पूछ कभी इश्क किया है। लड़की हतप्रत थी। बेगम ने कहा बिना इश्क के दिल में दर्द नहीं पैदा होता है और बिना दर्द के गज़ल नहीं गया जा सकता। बेगम की आवाज में जो कशिश और मिठास थी न जाने कितने दर्दो का जोड़ के आवाज की कोशिश और मिठास थी न जाने कितने दर्दो का जोड़ रहा होगा।
एक समीक्षक कहते है बेगम अख्तर जैसे मीना कुमारी रूपहले पर्दे पर एक कविता की तरह संगीत की दुनियां में आती थी। इसी में अज़ीम हस्ती की मौत अचानक हो गई। वह 29 अक्टूबर 1974 को अहमदाबाद एक संगीत कार्यक्रम में गई थी। श्रोताओं को रसविभोर करती रही। कौन जानता था कि यह उनकी आखिरी महफिल है। एक दिन बाद 30 अक्टूबर 1974 को अचानक दुनियां को अलविदा कह दिया। उन्हें लखनऊ लाकर पसन्द बाग में दफनाया गया। उनकी कब्र उपेक्षितसी रही अब कुछ सवर गया है। प्रसिद्ध फिल्मी संगीतकार मदन मोहन से उनकी दोस्ती थी। बेगम के मरने के बाद चार पांच दिन बाद ही वह लखनऊ आये थे। बेगम की कब्र पर गये थे। कभी कभी मै भी चला जाता हॅू जब बेगम की गई कुछ गजल दिमाग में धूमने लगती है। वहां पहुचने पर मुझे बेगम की गाई एक गजल की लाइन बार बार मेरे जेहन को मथती रहती है।
बुझी, हुई शम्मा का धुआं हॅू, और अपने मरकज़ को जा रहा हॅू
कि दिल की हस्ती तो मिट चुकी है, अब अपनी हस्ती मिटा रहा हॅू
अब्बासी साहब को अख्तरी से बेगम अख्तर बनाने के लिये शुक्रिया। उन्हें बेगम ने तराशा या उन्होंने बेगम ने उनको तराशा जो हो दोनो अपने-अपने क्षेत्र में बेजोड निकले। लखनऊ की शान है।
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