हिन्दु धर्म में एकता, प्रेम, क्षमा, दया एवं करूणा का महत्व

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डॉक्टर मोहम्मद अहमद नईमी

प्राचीन हिन्दु धर्म शास्त्रों के अनुसार सामाजिक संगठन की बुनियाद एकता ओर भाईचारा है। इसी भावना के द्वारा विभिन्न व्यक्तियों और संगठनों को एकता की लड़ी में पिरोया जा सकता है। संगठन का प्रत्येक व्यक्ति संपूर्ण संगठन का प्रतिनिधि होता है और पूरा संगठन उसकी शक्ति होती है। संगठन में कोई भी व्यक्ति स्वयं को तन्हा या बेसहारा प्रतीत नहीं करता है। इसलिए आवश्यक है कि समाज को संगठित किया जाए किन्तु उसके लिए ज़रूरी है कि समाज में आपसी एकता, भाईचारा, मुहब्बत और हमदर्दी की भावना जागृत हो। क्योंकि जहाँ हमदर्दी और भलाई होती है वहाँ हार्दिक एकता होती है। और आपसी करूणा और हमदर्दी की भावना ही समाज को उन्नती की ओर अग्रसर करती है। इन्हीं कारणों और उद्देश्यों को सामने रखते हुए प्राचीन हिन्दु धर्म शास्त्रों ने एकता, भाईचारा, आपसी प्रेम, करूणा और हमदर्दी की नैतिक शिक्षा पर काफ़ी ज़ोर दिया है। और कहा है कि प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य की रक्षा करे, उन्हें मुसीबत और तक़लीफ़ से बचाए, आपस में दुश्मनी न रखे, एक दूसरे के साथ अच्छा व्यवहार करे और सदैव एक दूसरे की मदद करे। चुनाँचे वेदों की शिक्षा एवे उपदेश है किः
‘‘ पुमान पुमांसं परिपातु विवतः। (ऋगवेद 6-75-14)
(अर्थातः एक दूसरे की हमेशा रक्षा करना और मदद करना इन्सानों का मुख्य दायित्व है।)
‘‘ मित्रस्याहं चक्षु षा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षु षा समीक्षामहे। (यजुर्वेद 36-18)
(अर्थातः मैं इन्सान क्या सभी प्राणीयों को मित्र की आँख से देखुं, हम सब आपस में एक दूसरे को दोस्त की नज़र से देखें।)
”मा नः सेना अररुषीरुप गुर्विर्षचीरिन्द्र द्रु्रहो वि नाशाय। (अथर्ववेद 19-15-2)
(अर्थातः हमें दोस्त, दुश्मन, परिचित या अपरिचित लोगों से डर न हो और रात से कोई डर न हो। सारा संसार हमारा दोस्त हो और दुनिया में रहने वाले सारे प्राणी और जीव हमारे मित्र हों।)
‘‘ समानो मंत्रः समिति समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मंत्रमभि मंत्रये वः समाने न वो हविषा जुहोमि।।
(अर्थातः आप सब की सोच एक हो, आप सब की सभा एक हो, आप सबके दिल भी एक ही सोच विचार से बंधे हों, आप सब का मन भी एक हो। इसीलिए तो मैं तुम सब को एकता और प्रेम का यह रहस्य बता रहा हूं।) (डाॅ. मु॰ हनीफ़ शास्त्री, वैदिक साहित्य में मानव कत्र्तव्य, दिल्ली, शाइस्ता प्रकाशन, 2002 ई॰ पृ॰ 197)
‘‘त्वं विष्णो सुमतिं विश्वजन्याम् अप्रयुता भेवयावो मतिं दाः।
पर्चो यथा नः सुवितस्य भूरे रश्वावतः पुरूषचन्द्वस्यरायः। (ऋग्वेद 7-100-2)
(अर्थातः ऐ विश्व जगत के स्वामी! तुम हमें विश्व बन्धुत्व की शुभ भावना दो। ऐ इच्छााओं के पूरा करने वाले तुम हमें शुद्ध बुद्धि दो जिससे सुख देने वाले बहुत से घोड़ों के साथ दौलत का हमसे संपर्क हो।)
‘‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।
(अर्थातः आपस में मेल जोल, दोस्ती पैदा करो, आपस में बोल चाल या शास्त्र की चर्चा करो। स्वयं को अच्छे आचरण से सुसाज्जित करो जैसे पहले ज़माने के बुज़ूर्ग लोग अपने दायित्वों और कत्र्तव्यों कोआपस में तय करके बाँट लेते थे वेसे ही तुम भी करो।) (वैदिक साहित्य में मानव कत्र्तव्य पृ॰ 197)
‘‘सहृदयं सांमनस्यम्, अविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत, वत्सं जातमिवाध्न्या।। (अथर्ववेद 3-30-1)
(अर्थातः हे मनुष्यो! मैं (ईश्वर) प्रेम, सोच सहमति और दोषों से दूरी तुम्हारे लिए पैदा करता हूँ। पैदा हुए बछड़े को जिस प्रकार गाए प्यार करती है इसी प्रकार तुम सब आपस में प्रेम रखो।)
‘‘अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्री चीनान् वः संमनस स्क्रणोमि।’’ (अथर्ववेद 3-30-5)
(अर्थातः आपस में एक दूसरे से प्यारी बात बोलते हुए आगे बढ़ो मैं तुम्हें दूसरों का भला करने वाला और श्रेष्ठ विचारों से सुसज्जित करता हँू।)
‘‘ते अज्येष्ठासो अक निष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभागाय। (ऋग्वेद 5-60-5)
(अर्थातः उनमें न तो कोई बड़ा है और ना ही छोटा आपस में वह सब भाई भाई हैं।)
‘‘समान व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो, यथा वः सुसहासति।। (अथर्ववेद 6-64-3, ऋग्वेद 10-191-4)
(अर्थातः तुम्हारे संकल्प एक जैसे हों, दिल एक जैसे हों, दिमाग़ एक जैसे हों, जिससे तुम्हारा संगठन बहुत मज़बूत हो।)
वेदों के उपरोक्त मंत्रों में स्पष्ट रूप से आपसी मोहब्बत और प्रेम, हमदर्दी, करुणा, एकता और भाईचारे की नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा दी गई है यही शिक्षा दीक्षा अन्य धर्म शास्त्रों में भी विधमान है। योगवशिष्ठ में हैः
अत्रैकं पोरूषं यत्नं वर्जयित्वेतरा गतिः।
सर्वदुः खक्षय प्राप्तौ न काचिदु पपद्यते। (योगवशिष्ठ 3-6-14)
(यहां इस संसार में सारे कष्टों को मिटाने के लिए केवल दूसरे की भलाई एवं पुरुषार्थ को छोड़कर कोई दूसरा रास्ता नहीं है।)
भगवद् गीता का अनमोल कथन हैः
‘‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करूणा एव च।
(जो किसी जीव से हसद नहीं करता सबका दोस्त और दयावान है।)
यही शिक्षा राम चरित्र मानस में दी गई हैः
‘‘ परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।। (रामचरित्रमानस, उत्तर काण्ड-40)
(दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुंचाने से बढ़कर कोई पाप नहीं है।)
‘‘परहित बस जिनके मन माँहीं।
तिन कहं जग दुर्लभ कछु नाहीं।। (रामचरित्रमानस, अरण्य काण्ड-30)
(दूसरों का भला जिनके दिल में बसा हुआ है उनके लिए दुनिया में कुछ कठिनाई नहीं है।)
इसी प्रकार मनुस्मृति का आदेश एवं उपदेश है किः
नारूंतुदः स््यादार्तो ऽपि न पर द्वोह कर्मधी।
ययास्यो द्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्।।
(अर्थातः स्वयं दुखी होते हुए भी किसी का दिल ना दुखाए, दूसरों से दुश्मनी की सोच भी ना रखे और ऐसी बात भी ना बोले जिससे दूसरों को कष्ट हो।)
निष्कर्ष यह कि प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों एवं शास्त्रों में बहुत ही महत्व के साथ विभिन्न स्थानों पर एकता, विश्व बंधुत्व, आपसी प्रेम और करुणा की शिक्षा एवं उपदेश दिया गया है और वसुधैव कुटुंबकम यानी सारा संसार एक परिवार है का संदेश देकर संपूर्ण मानव संसार को एकता एवं विश्व बंधुत्व की डोर से बांधने का उत्तम प्रयास किया है।
एकता, आपसी प्रेम, विश्व बंधुत्व, दया एवं करुणा की इसी शिक्षा-दीक्षा का पैग़म्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) ने इस प्रकार उपदेश एवं संदेश दिया हैः
 सारे जीव एवं प्राणी अल्लाह का कुन्बा है और अल्लाह को सबसे प्यारा वह है जो उसके कुन्बे के साथ अच्छा व्यवहार करे। (मिश्कात, बाब शफ़क़ह, हदीस-425)
 तुममें सबसे अच्छे वह लोग हैं जो लोगों को फायदा पहुंचाऐं। (मजमूअ, फ़तावा इब्ने बाज़ 26/330)
 दया करने वालों पर अल्लाह दया करता है तुम लोग जमीन वालों पर दया करो तो आसमान वाला तुम लोगों पर दया करेगा (मिश्कात, जिल्द 2 पृष्ठ 423)
 अल्लाह उस इन्सान पर दया नहीं करता जो लोगों पर दया नहीं करता। (सही बुख़ारी, किताबुत्तौहीद, हदीस 2230)
 निःसंदेह अल्लाह हर मामले में दया एवं नरमी करने को पसंद करता है। (सही बुख़ारी, 5/2242, हदीस 5678)

कृपा एवं दया का निर्देश और हिंसा एवं अत्याचार का निषेध
इन्सान हो या जानवर किसी को कष्ट पहुंचाने का प्रयास न करना और ऐसा कोई काम न करना जिससे दूसरे के दिल को चोट पहुंचे प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों की शिक्षा दीक्षा की दृष्टि से इंसान का बुनियादी नैतिक एवं धार्मिक कत्र्तव्य है। अतः स्वयं कष्ट में होने पर भी किसी को कष्ट न पहुंचाएं और ऐसी बात हरगिज न करें जिससे दूसरा इंसान परेशान हो।
हिंदू धर्म ग्रंथों में अहिंसा एवं दया की शिक्षा देते हुए और अत्याचार एवं हिंसा की निंदा करते हुए कहा गया है कि समाज में हिंसा एवं अत्याचार की ज्यादती समाज व्यवस्था को भंग कर देती है इसलिए आवश्यक है कि ईश्वर के समस्त जीवों एवं प्राणियों पर कृपा एवं दया करें और किसी प्रकार का अत्याचार कदापि न करें। चुनांचे महाभारत में कहा गया हैः
अहिंसा परमो धर्मस्तथा ऽ हिंसा परं तपः।
अहिंसा परम सत्यम ततो धर्मः प्रवर्तते।। (महाभारत शांतिपर्व 139-42)
(अर्थातः अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म है, कृपा एवं दया सबसे बड़ी पूजा एवं भक्ति है कृपा एवं दया सबसे बड़ा सत्य है क्योंकि इसी से धर्म की उन्नति होती है।)
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राण भृतां वर।
तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्यान्मानुषः क्वाचित्।। (महाभारत, अनुशासनपर्व 115-23)
(अर्थातः अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है इसलिए इंसान को कभी भी कहीं भी किसी भी जानदार का कत्ल नहीं करना चाहिये।)
न हिंस्यात सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत्।
नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित।। (महाभारत आदिपर्व 11-13)
(अर्थातः न तू किसी जीव अथवा प्राणी का कत्ल कर और न किसी को कष्ट पहुंचा। सभी जानदारों के लिए प्यार की भावना रखकर जीवन व्यतीत करो इस चन्द दिन के जीवन के कारण किसी के साथ दुश्मनी न करो।)
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किन्नचन विद्यते।
तस्माद दयां नरः कुर्यात यथात्मनि तथा परे।। (महाभारत अनुशासनपर्व 116-8)
(अर्थातः दुनिया में अपनी जान से प्यारी कोई दूसरी चीज नहीं है इसलिए इन्सान जैसे अपने ऊपर कृपा एवं दया चाहता है इसी प्रकार दूसरे पर भी करे।)
महाभारत से प्रस्तुत किए गए श्लोकों से स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि प्राचीन हिंदु धर्म में दया एवं अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म और हिंसा एवं अत्याचार सबसे महान पाप एवं अधर्म है और कृपया एवं दया के पात्र केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि जानवर भी इसके हकदार हंै। इन्हीं शिक्षाओं का स्मृतियों में इस प्रकार वर्णन किया गया हैः
परस्मिन बन्धुवर्गे या मित्रे द्वेष्ये रिपौ तथा।
आपन्ने रक्षितव्यं तु वयैषा परिकीर्तिता।। (अत्रि स्मृति-41)
(अपना हो या पराया, भाई, रिश्तेदार हो या दोस्त, दुश्मन हो या विरोधी जो भी कोई मुसीबत में पड़ा हो उस मुसीबत से उसकी रक्षा करने का नाम है दया एवं करुणा।)
अहिंसयैव भूतानां कार्य श्रेयोनुशासनम्।
वाक्चैव मधुरा श्लक्षणा प्रयोज्या धर्म मिच्छता।। (मनुस्मृति 2-159)
(जानदारों की भलाई के लिए दया एवं करुणा से ही राज करना श्रेष्ठ है। धार्मिक प्रशासक को मधुर और विनम्र कथनों का प्रयोग करना चाहिये।)
परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्म वर्जितौ।
धर्म चाप्यसुखोदकं लोक विक्रुष्टमेव च।। (मनुस्मृति 4-176)
(अर्थातः जो उद्देश्य और आदेश धर्म के विरुद्ध हों उन्हें छोड़ दो और ऐसे धर्म को भी न करो जिसके पीछे कष्ट हो लोगों को रुलाने वाला कार्य न करो।)
दुःखितानीह भूतानि यो न भूतैः पृथगिवधैः।
केवलात्मसुखेच्छातो ऽ वेन्नृशंसतरोऽस्तिकः।। (13/33-41)
(अर्थातः जो व्यक्ति अपने सुख की इच्छा रखता है किंतु मुसीबत में पड़े हुए दूसरे जीवों एवं प्राणियों की ओर ध्यान नहीं देता उससे बढ़कर पत्थर दिल संसार में और कौन है?)
इस प्रकार उपरोक्त श्लोकों के प्रकाश में प्रकट होता है कि प्राचीन हिंदू धर्म शास्त्रों ने हिंसा दया एवं करुणा की धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा दीक्षा पर बहुत बल दिया है बल्कि वेदों में इन्सान और जानवरों, बच्चों, बूढ़ों, मर्दों और औरतों के लिए दया एवं करुणा की भीख माँगते हुए अनेक स्थानों पर ईश्वर से प्रार्थना करते हुए इस प्रकार बिनती की गई हैः
मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मान उक्षन्तमुत मान अक्षितम्।
मान वधीः पितरं मातरं मानः प्रियास्तन्वोरूद्ध रीरिषः।। (ऋग्वेद 1-114-7)
(ऐ संसार का विनाश करने वाले ईश्वर! तुम हमारे बड़ों और छोटों को न मारो। तुम हमारे यूवाओं और बूढ़ों को न मारो। हमारे माता-पिता को न मारो। तुम हमारे प्यारे शरीरों (जिस्मों) को हानि न पहुंचाओ।)
मा नस्ताके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रूद्ध भामिनो वधी र्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे।। (यजुर्वेद 16-16)
(ऐ संसार के मालिक तुम हमारे बेटों, पोतों को और हमारे जीवन को हानि न पहुंचाओ तुम हमारी गाय और घोड़ों को नुकसान न पहुंचाओ तुम हमारे जोशीले बहादुरों को न मारो।)
दया, करुणा एवं अहिंसा का यही संदेश एवं उपदेश इस्लाम इस प्रकार प्रस्तुत करता हैः
 नेकी और पुण्य पर एक दूसरे की मदद करो और जुल्म पर सहायता कदापि न करो। (क़ुरान, मायदा-2)
 अल्लाह से डरो और अपने आपस में मेल जोल रखो। (क़ुरान, अनफ़ाल, आयत-1)
 अगर तुम अल्लाह के बंदों की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद फरमाएगा। (क़ुरान, मोहम्मद-7)
 अल्लाह उस वक़्त तक अपने बंदे के काम में मदद करता रहता है जब तक बंदा अपने भाई के काम में मदद करता रहता है। (तबरानी, मोजम कबीर 5/118, हदीस 4801)
 वह इन्सान हम में से नहीं है जो हमारे छोटों पर दया न करे और हमारे बड़ों का सम्मान न करे। (सुनने तिर्मीज़ी 4/322, हदीस 1920)
 न तुम किसी को नुक़सान पहुंचाओ और न तुम्हें नुक़सान हो। (क़ुरान, बक़रह-279)
 निःसन्देह ज़ालिमों के लिए भयानक यातना एवं कष्ट है। (क़ुरान, शूरा-25)
 जिसने कोई जान क़त्ल की बिना जान के बदले या जमीन में दंगा एवं उपद्रव किया तो उसका पाप ऐसा ही है जैसे सारे संसार के लोगों का कत्ल किया और जिसने किसी जान को बचाया तो उसका पुण्य ऐसा ही है जैसे सारे संसार को बचाया। (क़ुरान, मायदा-32)
 पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, अल्लाह फ़रमाता है कि ऐ लोगो! मैंने ज़ुल्म को अपने ऊपर वर्जित कर लिया है और तुम्हारे बीच भी इसको वर्जित ठहराया है। इसलिए एक दूसरे पर ज़ुल्म एवं अत्याचार न करो। (मुस्लिम-6572)
 पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया जब लोग ज़ालिम को देखकर उसका हाथ न पकड़ें तो अल्लाह सब पर आकाशीय यातनाऐं एवं कष्ट अवतरित करता है। (अबु दाऊद, हदीस-4338)
 पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया जो व्यक्ति किसी को नुक़सान पहुंचाएगा अल्लाह उस को नुक़सान पहुंचाएगा और जो इन्सान किसी को कष्ट में डालेगा अल्लाह उसको कष्ट में डालेगा। (मुस्तदरक हाकिम 2/57)
क्षमा और माफी
भारतीय धर्म शास्त्रों में शत्रु को क्षमा करने और किसी व्यक्ति की गलती को माफ़ करने की विशेष शिक्षा दी गई है बल्कि क्षमा को धर्म, कर्म, पूजा, यज्ञ, सत्य, दान, पुण्य और एक अच्छे इन्सान का गुण और सौंदर्य बताया गया है। बाल्मीकि रामायण में उल्लेख है किः
अलण्कारो हि नारीणां क्षमा तु पुरूषस्य वा।
क्षमा दानं क्षमा सत्यं क्षमा यज्ञश्च पुत्रिकाः।।
क्षमा यशः क्षमा धर्मः क्षमाया विष्ठित जगत्। (बाल काण्डः 33/7-8)
(अर्थातः औरतों और मर्दों का अगर कोई वास्तविक ज़ेवर है तो वह क्षमा ही है। क्षमा ही दान है, क्षमा ही सत्य है, छमा ही यज्ञ है, क्षमा ही पुण्य है, क्षमा ही धर्म है। यह सारा संसार क्षमा से ही घिरा हुआ है।)
अन्यास्ते पुरूषश्रेष्ठाः ये बुद्धया क्रोधमुत्थिम्।
निरुन्धति महात्मानो दीप्तमग्नि मिवाम भसा।। (सुन्दर काण्डः 55-4)
(वास्तव में वह महात्मा लोग भाग्यशाली हैं जो अपने अंदर उठे हुए क्रोध को इस प्रकार बुझा देते हैं जिस प्रकार जलती हुई आग को पानी।)
यः समुत्पतिंत क्रोध क्षमायैव निरस्यति।
यथोरगस्तवर्च जीर्णां सवै पुरूष उच्यते।। (सुन्दर काण्डः 55-6)
(जो मनुष्य अपने अंदर उठे हुए क्रोध को ठीक ठीक उसी प्रकार छोड़ देता है जैसे सांप पुरानी केंचली को, तो वास्तव में उसी को मर्द कहना चाहिये।)
महाभारत में क्षमा के महत्व का इस प्रकार वर्णन किया गया हैः
लोभात् क्रोधः प्रभवति परदोषैरुदीर्यते।
क्षमया तिष्ठते राजन क्षमया विनिवर्तते।। (शान्ति पर्व 163/7-8)
(अर्थातः लालच से क्रोध पैदा होता है और दूसरों के ऐब और दोष देखने से वह बढ़ता है और क्षमा करने से वह रुक जाता है और क्षमा से ही वह ठंडा हो जाता है।)
संक्षिप्त यह है कि प्राचीन हिंदू धर्म शास्त्रों ने क्षमा करने एवं क्रोध शांत करने का विशेष आदेश एवं उपदेश दिया है और विभिन्न उदाहरणों से उसके महत्व को समझाने का प्रयास किया है।
इसी प्रकार इस्लाम में माफ़ करने और ग़ुस्सा पी जाने की न केवल विशेष शिक्षा दी गई है बल्कि उसके बहुत से लौकिक और पारलौकिक फ़ायदों का उल्लेख करके लोगों को उसकी ओर प्रेरित किया है। आसमानी धर्म ग्रंथ कुरान आदेश देता हैः
 और चाहिये कि क्षमा करें और माफ़ करें। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुमको माफ करे। (अन्नूर-22)
 गुस्सा पीने वालों और माफ़ करने वालों को अल्लाह पसन्द फ़रमाता है। (आले इमरान-134)
 तुम क्षमा करो और छोड़ दो। (अलबक़रह-109)
 क्षमा करना अपनाओ, अच्छाइयों का आदेश दो और जाहिलों से अलग हो जाओ। (अलआराफ़-199)
पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं
 जो व्यक्ति किसी को क्षमा कर देता है अल्लाह उसका मान-सम्मान बढ़ा देता है। (सही मुस्लिम, हदीस-6264)
 माफ़ करो अल्लाह तुम्हें माफ़ करेगा। (मुसनद अहमद-2/165)

असिस्टेंट प्रोफेसर डिपार्टमेंट ऑफ इस्लामिक स्टडीज, जामिया हमदर्द (हमदर्द यूनिवर्सिटी) नई दिल्ली-62
म्उंपसरू उंदंममउप/रंउपंींउकंतकण्ंबण्पद
डवइपसमरू 9013008786ए 8447869250

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