और इस प्रकार परीभवन बिक गया

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श्याम कुमार 

वह मेरे मुहल्ले में रहता था। वह और उसका भाई मेरा बहुत सम्मान करते थे। बाद में बड़े भाई ने गोविंदनगर क्षेत्र में अपना घर बनवा लिया, जहां दोनों भाई रहने लगे। छोटे भाई ने अपना उपनाम ‘षैतान’ रखा था तथा मेरे पास आता रहता था और मैं उसकी बहुत मदद करता था। उसने एलएलबी किया और वकालत षुरू की। षुरू से उसकी आर्थिक दषा बहुत खराब थी। जब उसकी मां का देहांत हुआ तो उसने मुझे पत्र लिखकर बुलाया कि जितना अधिक हो सके, उसकी आर्थिक मदद करूं। आज्ञाकारी षिश्य की तरह वह मुझे बहुत मानता था तथा अपनी चारसौबीसी की हरकतें मुझे बताया करता था। लेकिन मुझे नहीं पता था कि कभी वह अपना ‘हुनर’ मुझ पर आजमाएगा। ‘रंगभारती’ के कार्यक्रमों के सिलसिले में मुझे अकसर बाहर जाना होता था तथा लगातार लखनऊ का चक्कर भी लगता रहता था। मेरी मां व पत्नी मेरे अनुज कैलाष के साथ लखनऊ में थीं। मां अस्वस्थ रहती थीं। ‘षैतान’ की हरकतों के कारण उसके अपने बड़े भाई से भी अच्छे सम्बंध नहीं रह गए थे। मेरी गैरहाजिरी में ‘रंगभारती कला अकादमी’ के कार्यकलाप पड़ोस में रहने वाला राजीव माथुर, जो मुझे बड़े भाई की तरह मानता था, संभाल लिया करता था। बहादुर नामक नेपाली परीभवन के नीचे ठेलिया लगाता था और मेरी अनुपस्थिति में वह भी देखरेख करता था।
‘षैतान’ ने मेरा इतना विष्वास जीत लिया था कि जब तब वह मेरे यहां रुकने भी लगा। एक बार मैं लखनऊ में था और वहां से मैंने इलाहाबाद(अब प्रयागराज) में घर फोन किया तो ‘षैतान’ की बच्ची ने फोन उठाया। मैं चौंका और जब लखनऊ से लौटा तो देखा कि वह अपनी पत्नी व दोनों बच्चियों के साथ डेरा जमाए था। मेरे पूछने पर उसने कहाकि गोविंदपुर दूर होने के कारण वह परिवार ले आया है, ताकि यहां रुकने पर भोजन की सुविधा रहे। मेरा उसने इतना विष्वास जीत लिया था कि मैं उसकी नीयत भांप नहीं सका। उसमें एक विषेश गुण था कि वह बहुत अच्छी चम्पी व मालिष करता था। जब मैं बाहर से इलाहाबाद लौटता था तो वह मेरी मालिष कर सारी थकान उतार देता था। उसकी पत्नी तुरंत पकौड़े बनाकर ले आती थी। मैंने पूरे घर में हर तल पर बहुत सुंदर वाटिकाएं बना रखी थीं, जिनमें वह मेरी अनुपस्थित में पानी डाल देता था। नीचे भूतल पर स्थित हॉल व कुछ कमरों में मेरा काफी सामान एवं महत्वपूर्ण कागजात रखे हुए थे तथा उन कमरों में मेरा ताला लगा था।
मुझे मुहल्ले के कुछ लोगों ने ‘षैतान’ की नीयत के बारे में सचेत किया, लेकिन मैंने उनकी बात को अधिक गंभीरता से नहीं लिया। पर जल्दी ही जब उसके शड्यंत्र की ठोस जानकारी मिली तो मैंने विषेश सतर्कता बरतनी षुरू की। वह मुफ्त में घर का इस्तेमाल तो कर ही रहा था, बिजली का भारीभरकम बिल का भी मुझे भुगतान करना पड़ता था। यदि मैं किराएदार रखता तो उतने हिस्से का दस-पांच हजार रुपये किराया तो आसानी से मिल सकता था। परीभवन में सामने के हिस्से में दो कमरों में नाई की दुकान थी। मेरे पिताजी ने किसी परिचित की सिफारिष पर एक गरीब मुसलमान को नाई की दुकान चलाने के लिए कोई किराया लिए बिना दो कमरे दे दिए थे। इस बीच मैं एक प्रकार से लखनऊ षिफ्ट हो गया था, किन्तु बीच-बीच में मेरा इलाहाबाद का चक्कर लगा रहता था। ‘रंगभारती कला अकादमी’ में मार्षल कला, संगीत व ब्रेकडांस सिखाए जाते थे। जब मैं इलाहाबाद में मौजूद होता था तो ब्रेकडांस मैं ही सिखाता था।
जब मुझे ठोस जानकारी मिल गई कि ‘षैतान’ परीभवन को अपनी मिल्कियत बताने का शड्यंत्र कर रहा है तो मजबूर होकर मैंने परीभवन को बेचने का निर्णय किया। बेचने से पहले नाई से दोनों कमरे खाली कराना जरूरी था। जब यह खबर फैली कि मैं परीभवन बेचना चाहता हूं तो ग्राहक आने लगे। अब नाई से कमरे खाली कराना जरूरी हो गया। एक अन्य लड़का मेरे पास आया करता था जो आवारागर्दी के लिए मषहूर था, लेकिन वह मेरा सम्मान करता था। बाद में वह आष्चर्यजनक रूप से न्यायाधीष हो गया था।
जब परीभवन खरीदने के लिए ग्राहकों के फोन आने लगे तो मेरा बार-बार टैक्सी से इलाहाबाद जाना होने लगा। हवेली की अच्छी कीमत मिलने के प्रस्ताव आ रहे थे। किन्तु खरीदार भीतर का वह हिस्सा भी, जिसका ‘षैतान’ इस्तेमाल कर रहा था, चाहते थे। लेकिन ‘षैतान’ खाली करने में टालमटोल करने लगा। इससे गाड़ी अटक गई। तभी विधानसभा का चुनाव आ गया, जिसमें मेरा एक अन्य षिश्य खड़ा हो गया था। ‘षैतान’ ने उसको कार्यालय बनाने के लिए एक कमरा किराए पर दे दिया। मेरे एक मौसरे भाई इटावा के थे, जो हवड़ा में बस गए थे और वहां के षीर्शस्थ वकीलों में उनकी गणना होती थी। ‘षैतान’ मुफ्त में रह रहा था, किन्तु अपने को किराएदार बताने लगा था। जब मैंने मौसरे भाई को यह बात बताई तो उनकी सलाह पर मैंने ‘षैतान’ के विरुद्ध यह मुकदमा कर दिया कि यदि वह किराएदार है तो उसने अनधिकृत रूप से उपकिराएदार कैसे रख लिया? जिसको उसने कमरा दिया था, मेरे उस षिश्य ने मुझे लिखकर दे दिया कि उसे ‘षैतान’ ने किराएदार रखा है। इस आधार पर मैंने ‘षैतान’ से घर खाली करा लिया।
नाई भी खाली करने को तैयार था, किन्तु ऊपर उल्लिखित न्यायाधीष ने उसे खाली करने से मना कर दिया। पता लगा कि न्यायाधीष महोदय यह धंधा भी करते हैं कि बिकने वाले मकानों में अपने गुर्गाें द्वारा अड़ंगा लगाकर धन की वसूली करते हैं। इस बीच यह खबर मिली कि ‘षैतान’ ने इस आषय के फर्जी कागजात तैयार कर लिए हैं कि परीभवन उसकी मिल्कियत है और वह सिविल अदालत में मुकदमा कायम करने जा रहा है। मैंने मौसरे भाई को फोन पर यह बात बताई तो उन्होंने कहाकि अब तो मकान को किसी भी कीमत पर तत्काल बेच दो, अन्यथा सिविल अदालत में मुकदमे दस-बीस साल आसानी से घिसटते हैं। उधर न्यायाधीष ने नाई वाली फांस लगा दी थी, अतः मजबूर होकर करोड़ों की हवेली बहुत कम कीमत पर मुझे तुरंत बेच देनी पड़ी। मकान के सिलसिले में इलाहाबाद की दौड़ लगाते-लगाते मेरा बुरा हाल हो गया था। इस प्रकरण से एक दषक पूर्व मुम्बई की एक पार्टी परीभवन खरीदना चाहती थी तथा वह उस समय एक करोड़ रुपये देने को तैयार थी तथा बनने वाली बिल्डिंग में एक फ्लैट भी मुझे दे रही थी। लेकिन उस समय मैं इलाहाबाद में ही रहता था तथा परीभवन के साथ इतनी यादें जुड़ी हुई थीं कि मैंने बेचने से इनकार कर दिया था।
जब मैंने ‘षैतान’ से मकान खाली कराया तो उसके षातिर दिमाग के ऐसे नमून मिले, जिनसे मैं हैरत में पड़ गया। मेरे व मेरे बगल वाले मकान के बीच एक बहुत पतला गलियारा था। ‘षैतान’ ने गलियारे के बगल में मेरे कमरे की खिड़की की छड़ें निकालकर उसके आगे अलमारी लगा दी थी, ताकि मुझे खिड़की का वह दृष्य न दिखाई दे। उक्त खिड़की से ‘षैतान’ ने गलियारे से लगे हुए मेरे दूसरे कमरे की खिड़की की छड़ें भी निकाल दी थीं और उस कमरे में घुसने का रास्ता बना लिया था। उक्त कमरे में रखे हुए मेरे जरूरी कागजात ‘षैतान’ ने अपने पास रख लिए थे तथा बहुत सामान बेच डाला था। लाखों रुपये के फर्नीचर एवं अन्य सामान लखनऊ लाने या बेचने का समय ही नहीं मुझे मिल पाया और सब वहां वैसे ही छोड़ देना पड़ा।
जब मैं परीभवन से अंतिम बार विदा हुआ तो हृदय हाहाकार कर रहा था तथा आंसू थम नहीं रहे थे। उस हवेली से मेरी असंख्य यादें जुड़ी हुई थीं, जो चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूम रही थीं। जिस प्रकार मैं जीवन में एक से एक दुश्टों को झेलता रहा तथा उनसे हमेषा संघर्श करना पड़ा, पिताजी की व मेरी परोपकार की प्रवृत्ति के कारण परीभवन को भी तमाम कश्ट झेलने पड़े। ‘षैतान’ ने मुझे जितनी वेदना दी, बाद में उसे भी ईष्वर ने दंडित किया।

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