आखिर क्या चाहता है विपक्ष जातिगत जनगणना से

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कांग्रेस के 139 वे स्थापना दिवस पर इसके सम्मेलन में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दोहराया कि अगर विपक्षी गठबंधन इंडिया सत्ता में आया तो जातिगत जनगणना कराई जाएगी। उनका आरोप था कि केंद्र सरकार जातिगत जनगणना से बचना चाहती है। उसने देश में कई क्षेत्रों में ओबीसीए दलित और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिया है। इससे पहले भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में जाति आधारित सर्वे कराकर जातिगत जनगणना को हवा दे चुके हैं विपक्ष रह रह कर जातिगत जनगणना की मांग करता रहा है लेकिन केंद्र सरकार इसे नजरअंदाज करती चली आ रही है। आखिर विपक्ष जाति आधारित जनगणना से क्या चाहता है और केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना से क्यों बचना चाहती है।
भारतीय राजनीति में जाति का प्रभाव शुरू से ही देखा जा सकता है। 1980 के दशक से ही जातिगत जनगणना की पहल हो रही है। इसका मूल उद्देश्य तो गरीब जातियों को उसकी जनसंख्या के आधार पर सरकारी नौकरी में आरक्षण देना और जरूरतमंद लोगों को सरकारी सुविधाएं प्रदान करना होता है। लेकिन संकीर्ण राजनीति ने इसे जाति आधारित राजनीति एवं सामाजिक अलगाव का रूप दे दिया है।
ऐसा लगता है कि भाजपा सरकार जाति आधारित जनगणना के पक्ष में नहीं है क्योंकि शायद इससे उसके सवर्ण मतदाता टूट सकते हैं तथा उसके सामूहिक हिंदू वोट बैंक में बिखराव आ सकता है। वहीं विपक्ष सामाजिक विकास के नाम पर जातिगत जनगणना को चुनाव में मुद्दा बनाना चाहता है जिससे वह दलितों तथा पिछड़ों को अपनी तरफ कर सके और उनका वोट पा सके। जातीय जनगणना की मांग के बीच राम मंदिर का उद्घाटन कार्यक्रम भले ही एक संयोग मात्र हो लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में यह मंडल बनाम कमंडल पार्ट 2 का भी रूप ले सकता है। मंडल बनाम कमंडल 1990 ई की लड़ाई में एक तरफ मंडल रिपोर्ट थी तो दूसरी तरफ राम मंदिर का उग्र हिंदुत्व मुद्दा। इससे देश में कई राजनीतिक परिवर्तन आए। इस बार कथित मंडल बनाम कमंडल पार्ट 2 से क्या परिवर्तन होंगे। जातिगत राजनीति का यह मुद्दा क्या मंडल राजनीति का ही अवतार है या केवल भाजपा को रोकने का चक्रव्यूह। यह तो 2024 के आम चुनाव के बाद ही पता चलेगा। लेकिन जातिगत जनगणना के मुद्दे का असर हाल ही के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में नहीं दिखा। जातिगत राजनीति की बजाय भाजपा के हिंदुत्व कार्ड ने लोगों का मन जीत लिया। ऐसा लगता है कि जाति की राजनीति पर धर्म की राजनीतिक भारी पड़ रही है। अब क्षेत्रीय दलों को सोचना पड़ेगा की जाति क्षेत्र एवं भाषा के आधार पर अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखना कठिन है। क्योंकि अब जनता पहले से कुछ अधिक समझदार हो गई है लेकिन जिस दिन जनता पूर्ण समझदार हो जाएगी उस दिन से जातिगत राजनीति पर वर्तमान में भारी पड़ने वाली सांप्रदायिक राजनीति भी नहीं चलेगी। तब केवल विकास चलेगा। जनता सोचने लगेगी कि बिहार में जातिगत जनगणना से अधिक जरूरी पूर्ण जमीदारी उन्मूलन है। जाति धर्म भाषा और क्षेत्र आधारित राजनीति को हमें नकारना चाहिए क्योंकि ऐसी संकीर्ण राजनीति से देश के विकास में बाधा पहुंचती है। जाति की राजनीति करने वाली सपा बसपा जैसी मंडल पार्टिया अब अपना जनाधार खोने लगी है। लेकिन जो भी कुछ हो जाति आधारित जनगणना के मुद्दे ने राष्ट्रीय जनगणना के सवाल को भी जिंदा कर दिया है। आखिर कोरोना के कारण अपने समय पर न हो पाई राष्ट्रीय जनगणना अब कब होगी। इतना तो स्पष्ट है कि अगले लोकसभा चुनाव 2024 से पहले यह संभव नहीं है। 2011 की जनगणना के बाद राज्यों में काफी बदलाव आया है। 2011 के आंकड़ों से तरक्की की धारा में पीछे रह गए लोगों की सही.सही पहचान करना कठिन है जबकि उनकी पहचान करके उनके लिए विकास कार्यक्रम चलाना राज्यों का दायित्व है। इसलिए जब दसकीय राष्ट्रीय जनगणना में धर्म आधारित जनगणना से हमारे समाज में कोई समस्या नहीं खड़ी होती है तो फिर जातिगत जनगणना से कैसे किसी प्रकार की समस्या खड़ी हो सकती है। बेहतर होता कि जातिगत जनगणना को राजनीतिक फुटबॉल न बनाकर एक ईमानदार पहल के रूप में इसे स्वीकार कर लिया जाता। जाति और समुदाय सामाजिक सच्चाइयां हैं। इनके आधार पर हमारे देश में आरक्षण का वैधानिक प्रावधान है। जाति आधारित सटीक आंकड़ेए सही और सटीक आरक्षण व्यवस्था के लिए जरूरी हैं। इससे पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने वर्ष 2010.11 में आर्थिकए सामाजिक और जातिगत जनगणना करवाई थी लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किये जा सके। इसी प्रकार 2015 में कर्नाटक की सरकार ने भी जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए थे। क्योंकि जातिगत जनगणना की मात्र चर्चा शुरू होते ही बहुत सी उलझने और प्रश्न हलचल मचाने लगते हैं। इसमें एक प्रमुख समस्या यह है कि इसके आंकड़ों के आधार पर पूरे देश में आरक्षण की नई हिंसात्मक मांग प्रारंभ हो जाएगी। जैसा कि अभी बिना जातिगत जनगणना के ही 2015 ई के पटेल आरक्षण आंदोलन में देखा जा चुका है। पिछड़े एवं दलित जातियों की जनसंख्या के अनुसार आरक्षण की वकालत सबसे पहले 1980 के दशक में बसपा के नेता कांशीराम ने की थी। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी तथा दक्षिण की कई पार्टियों भी जातिगत जनगणना के लिए आवाज उठाती रहती हैं। लेकिन जानकार मानते हैं कि जाति आधारित जनगणना की बातें केवल पिछडी जनता को उद्वेलित करने के लिए हैं। पिछड़ों को बर्तन में पानी भरकर केवल चांद दिखाया जाता है क्योंकि बच्चा इस तरह के चांद से खेलते खेलते सो जाता है। मोहम्मद इकबाल की ये पंक्तियां जातिगत जनगणना के पीछे पार्टियों की वोट बैंक की असल मंशा से मेल खाती है रू
श्जम्हूरियत वह तर्ज ए हुकूमत है कि जिसमेंए
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।श्

गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान इलाहाबाद के प्रोफेसर बद्री नारायण के अनुसारए श्अधिकांशए गरीब दलितए पिछड़ों के लिए दैनिक जिंदगी की आवश्यकताएं और रोजी.रोटी का प्रश्न ज्यादा मायने रखता है जिसे सरकार की योजनाएं जैसे राशन योजनाए प्रधानमंत्री आवास योजनाए किसान निधिए पेंशन योजना आदि पूरा करती हैंए नौकरी और जातिगत आरक्षण नहीं। एक अन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि जनगणना करने से बेरोजगारीए शिक्षाए स्वास्थ्यए किसानो की आत्महत्याए कोविड में जान माल की हानिए नोटबंदी और इसका देश की अर्थव्यवस्था पर पड़े असर के वास्तविक नकारात्मक आंकड़े भी बाहर आ सकते हैं। इससे केंद्र सरकार की छवि धूमिल हो सकती है। 2021 की जनगणना यदि समय पर होती तो इससे जो भी नकारात्मक आंकड़े सामने आते उसमें से अधिकांश की जिम्मेदारी भाजपा सरकार की ही होती। इस वजह से भी केंद्र सरकार जनगणना के मुद्दे पर दुविधा में फंसी है। ब्रिटिश काल में 1872 से 1931 तक जाति आधारित जनगणना होती रही। एससी एसटी को आरक्षण संविधान में लिखा है इसलिए एससी एसटी की जनगणना को रोका नहीं जा सकता है। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को लगा कि जाति आधारित जनगणना भारतीय समाज में बिखराव पैदा करेगी इसलिए स्वतंत्र भारत में जब 1951 में जनगणना हुई तो उसमें केवल एससी एसटी को ही वर्गीकृत किया गया। पिछड़ी जातियों की अलग से जनगणना बंद कर दी गई। अब चुकि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी जाति आधारित जनगणना के पक्ष में बयान दे चुके हैं इसलिए जातिगत जनगणना का राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो आगामी दसकीय राष्ट्रीय जनगणना से ही पता चलेगा।

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