एस.एन.वर्मा
पत्रकार खुशवन्त सिंह ने कैफ़ी आज़मी के ष्उर्दू शायरी का बादशाहष् कहा था। कैफी आज़मी आम आदमी की तकलीफो को प्रभावी ढंग से पेश करते है साथ ही आम आदमी को अपने हक के लिये लड़ने की ताकत भी देते है। साथ ही हुस्न और इश्क की भी बेजोड़ शायरी करते है। फिल्मों गीतो को भी अपनी क़लम से खूब चमकाया है।
कै़फी साहब आजमगढ़ के एक छोटे से गांव में पैदा हुये थे। घर में जमीदारी थी और खेती भी होती थी। बचपन में ही उन्हें मज़हबी स्कूलों में मौलवी बनने के लिये पढ़ाया गया। पर उनका मन नही लगा। दो भाई शायरी करते थे वह बैठ कर सुनते थे। उम्र 9-10 साल की थी। बुर्जुग उन्हें डांट कर भगा देते थे तुम्हें क्या समझ में आयेगी जाओ पान लाओ। रूआंसे चले जाते मम्मी से कहते देखना एक दिन इन सबसे बड़ा शायर बनकर दिखाऊंगा। बात सच निकली। आज शायरों की लिस्ट में उनका नाम अलग चमकता रहता है।
उनके शायरी के विकास की कहानी बड़ी दिलचस्प है। गांव में फसल कट रही थी देखरेख कैफ़ी साहब कर रहे थे। एक हंसीन लड़की फसल का बड़ा बोझ बनाती जा रही थी। कैफी साहब हुस्न पर फिदा उसे मदद कर रहे थे। तभी उनके चाचा आ गये। कैफी का कान पकड़ा घर में इनका किस्सा बताया कैफी साहब को लखनऊ भेज दिया गया। यहां शियों के स्कूल में उन्हें भरती करा दिया गया और हास्टल में रहने लगे। यहां मांगो को लेकर लम्बी हड़ताल चला रहे थे। रोज मीटिग करते थे अपने लिखे शायरी से उनमें उत्साह भरते थे। मीटिंग के दौरान एक बुजुर्ग आये और जो नज्म़ वह पढ़ रहे थे उनसे मांग लिया। कैफी साहब ने पूछा आप है कौन जवाब मिला मुझे अली अब्बास हुसैनी कहते है। उर्दू वालों में प्रेमचन्द्र के बाद यह दूसरा नाम है। उन्होंने कैफी साहब को घर आने को कहा कैफी साहब घर गये तो वहां सर्फराज के एडीटर से उन्हें मिलवाया और कैफी साहब की खूब तारीफ की। एडीटर ने सरदार जाफरी से कैफी साहब को मिलवाया।
कैफी साहब पर सियासत का जनून इस कदर चढ़ गया कि उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। बहराइच में एक मुशायरा हुआ। कैफी साहब ने पहली बार अपनी ग़ज़ल पढी। जिसमें एक शेर था ष्वह सबकी सुन रहे है सबको दाद-ए-शौक़ देते है,ष् कही ऐसे में मेरा किस्स-ए-गम भी बया होता। लोगो ने कैफी साहब को बेइन्तिहा पसन्द किया। हालाकि उम्र में बहुत छोटे थे। घरवालों को यकीन नही था कि ग़ज़ल कैफी साहब ने लिखी है इसलिये उनका इम्तहान लेना तय हुआ। मुझे मिसरा दिया गया इतना हंसे की आंख से आंसू निकल पड़े। कैफी साहब की यह ग़ज़ल बेंगम अख्तर के हाथ लग गई। जिसे गा कर मां को उन्होंने अमर कर दिया। पहला शेर है इतना तो ज़िन्दगी में किसी की खलल पड़े हंसने से हो सुकूं न रोने से कल पड़े।
11 वर्ष की उम्र में लोगो की राय पर इस्लाह के लिये सफी साहब के यहां पहंचे। उन्होंने कहा तुम 11 साल के हो मै 65 साल का तुम्हारे नज्म में कोई ग़ल्ती हो तो मै सुधार देता पर ग्यारह साल की गर्मी का मै 65 साल का मुकाबला नही कर सकता। सैफी साहब ने मशविरा दिया यू ही लिखते रहो और तारीफ से भटको नहीं सैफी साहब की राय लिये वह शायरी की दुनिया में कूद पड़े। एक से एक अच्छी शायरी की।
कैफी साहब कम्युनिष्ट विचार धारा से प्रभावित थे। वह कम्यून में रहे। जहां इस विचारधारा के लोग अपने परिवार के साथ रहते थे। अपनी योग्यता के अनुसार कमाते थे पर जरूरत के मुताबिक लेते थे। बाकी पार्टी को दे दिया करते थे। शौचालय और स्नानगृह कामन हुआ करते थे। एक एक कमरे में लोग रहते थे। पार्टी की मीटिंग करते थे। जलूस निकालते थे। इसी एक कमरे में उनके यहां फैज़ अहमद फैज़ रघुपति सहत्य फिराक जैसे शायर आके रूका करते थे और खूब शेरो शायरी चलती थी।
कैफी साहब के ऩज्मो और गज़लो के चार संग्रह प्रकाशित हुये है। झंकार आखिर-ए-शब, आवारा सिज्दे, इब्लीस की मज्लिस-ए-शूरा आवारा सिज्दे को लेकर दिल्ली के एक साहब और शाही इमाम ने संघर्ष छेड दिया और कैफी साहब का किताब ज़ब्त करने और उन्हें जेल में डालने को कहा पर प्रदेश की उर्दू अकादमी ने उस साल का सबसे बेहतरीन किताब माना। इसी किताब के लिये सेवियत लैन्ड नेहरू अवार्ड और साहित्य अकादमी का अवार्ड दिया गया। पूरे साहित्यिक सेवा के लिये लोटस एवार्ड से नवाजा गया।
अलबेले शायर पर 8 फरवरी,1973 को लकवा का हमला हुआ बायां हाथ पांव बेकार हो गया। चार दिनो बाद होश आया। पर हिम्मत नही हारी। उसी हालत में शमा जै़दी के एक नज्म़ सुनाई आज अंधेरा मेरे नस नस में उतार जायेगा।……आखिरी शेर है राख हो जायेगा जलते जलते, और फिर राख बिखर जायेगी।
जिस शायर ने लिखा
क्यो सवारी है चन्दन की चिता मेरे लिये
मै कोई जिस्म नही की जला दोगे मुझे
राख के साथ बिखर जाऊगा मैं दुनियां में
तुम जहां खाओगे ठोकर वही पाओगे मुझे
अतहर हुसैन रिज़वी उर्फ कैफ़ी आज़मी 83 साल की उम्र में 10 मई 2002 को कब्र में सो गये। बड़े शौक से सुन रहा था ज़माना, खुदी सो गये दास्ता कहते कहते।