ईच्छाओं की कुर्बानी ही अस्ल कुर्बानी है।

0
1093

अवधनामा संवाददाता

✍️हिफजुर्रहमान

मौदहा हमीरपुर :ईद-उल-अज़हा, ईद-ए-कुर्बान या बकरीद के अवसर पर भारत सहित दुनियां भर के देशों में सभी मुसलमान अल्लाह के सामने हाजिर हो कर दो रकअत नमाज़ अदा करते हैं नमाज के बाद ईश्वर के पैगम्बर हजरत इब्राहीम की परंपरा यानी कुर्बानी करते हैं जिस पर हजारों वर्षों से अमल किया जा रहा है और कयामत तक कुर्बानी का यह अमल जारी रहेगा।कुर्बानी हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने अल्लाह की रज़ा के लिए पेश की थी उन्हीं के तरीके पर अमल करते हुए मुसलमान ईद-अल-अज़हा के मौक़े पर कुर्बानी करते हैं। बकरीद मुसलमानों के सामाजिक जीवन का एक बड़ा त्योहार है।
सामाजिक जीवन में त्योहारों तथा खुशियों का बहुत महत्व है। जश्न मनाना सामाजिक जीवन की जीवनदायिनी है। इन्सान की फितरत में खुशी व गम दोनों शामिल हैं जिनको मनाऐ बिना उस का जीना दुर्लभ होजाऐगा इसीलिए लोग खुशी व्यक्त करने के लिए, मेलों – ठेलों का आयोजन करते हैं ऐसे अवसरों पर अपने महत्व और उपस्थिति को व्यक्त करने के लिए इकट्ठा होना मानव स्वभाव है। मनुष्यों के बीच त्योहार एक ऐतिहासिक घटना के स्मारक के रूप में मनाए जाते हैं। हर धर्म के त्योहारों की अपनी परंपराएं व रीति रिवाज होते हैं।
ईद-उल-अजहा का उल्लेख ईश्वर के विशेष सेवकों व नबियों, इब्राहीम और इस्माइल (अ.स) के बलिदानों से जुड़ा है जिसका का बुनियादी फलसफा कुर्बानी, ईमानदारी और अल्लाह के रास्ते में अपनी सबसे प्यारी चीज को न्योछावर करना है। यदि ईद-उल-अज़हा के अवसर पर दी जानें वाली कुर्बानी में उन उद्देश्यों की पूर्ति न की जाए, जिन के लिए हजरत इब्राहीम अलैह सलाम नें अपनी सब से कीमती और प्यारी चीज को कुर्बान कर दिया था तो ईद-उल-अजहा का अर्थ अर्थहीन हो जाता है।
फर्ज व वाजिब की अदाईगी के अलावा जरूरी है कि हम इस मौके पर हर जरूरत मन्द व परेशान हाल इन्सानों की बिना जात धर्म देखें मदद करें ताकि जो मुसलमान हैं वे भी आप के साथ खुशी मना सकें और जो गैर-मुस्लिम भाई बहन हैं उन का भी सम्मान हो सके। ईद-उल-अजहा मनाने का उद्देश्य है कि मुसलमानों के अन्दर वही रूह, इस्लाम व ईमान की वही कैफ़ियत और ईश्वर के प्रति प्रेम व वफादारी की वही शान पैदा हो जो हजरत इब्राहीम (अ. स) ने अपने जीवन में कर के दिखाई थी। अगर कोई इन्सान सिर्फ एक जानवर को जिबा करता है और उसका दिल उस आत्मा से खाली है जो बलिदान कुर्बानी के लिए आवश्यक है,जो कुर्बानी का अस्ल मकसद है तो वह एक नाहक जानदार का खून बहाने के सिवा कुछ नही पाता। बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी इस बात को याद दिलाने के लिए की जाती है कि अल्लाह के दिये हुए जानवरों को जब हम अल्लाह के रास्ते में कुर्बान करते हैं तो हम अपने उस ईमान को ताजा करलेते हैं कि हमारी जान और हमारा माल सब कुछ अल्लाह का ही है और समय आनें पर हम अपनी हर चीज उस की राह में कुर्बान करने के लिए तैयार रहेगें।
ईद-उल-अजहा अल्लाह के दीन के पूरा होनें का उत्सव भी है, और हजरत इब्राहीम के तरीके का स्मारक भी है, अर्थात ईश्वर के रास्ते में निकलना, उसकी राह में प्रयास करना , उसके रास्ते में धन देना , धन की कुर्बानी, जान की कुर्बानी आदि, जैसै रोजा तकवा पैदा करता है, अल्लाह की बन्दगी का जज्बा बढ़ता है, रातों को खड़ा रखता हैं, अल्लाह के करीब करता है , वैसे ही कुर्बानी इस बात का प्रशिक्षण देती है कि अल्लाह के रास्ते में निकला जाए और उस के दीन को उन तक पहुंचाने का प्रयास किया जाए जिन तक अभी अल्लाह का दीन नही पहुंचाया जा सका क्योंकि इन के बिना ईमान के तकाज़ो को पूरा नहीं किया जा सकता है। कुर्बानी करनें वाले हर इन्सान को चाहिये कि वह अपनें अन्दर के घमंड, जिद, नफरत, ईर्ष्या व ताअस्सुब (धर्म या जाती के नाम पर भेद-भाव) के बुतों को तोड़े क्योंकि इन्ही बुराईयों को कुर्बान करनें का नाम अस्ल कुर्बानी है।
इस्लाम की शिक्षाऐं सदैव अमन का सन्देश देती है, हज सहनशीलता, भाई चारागी और ईश्वर से दोस्ती का ऐसा माध्यम है जिसकी मिसाल कहीं और नही मिलती है। इस्लाम धर्म दुनिया में सदैव से अमन कायम करने का एक आन्दोलन है जो अमन, सुकून व शांति का सन्देश देता है।

Also read

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here