कविता
(आसिया खान)
मैं एक गहरा सागर हूँ
दुनिया कहती है पागल हूँ ….
मेरा किसी पे ना कोई दबाव है,
मेरा सरल सहज स्वभाव है….
तुम्हें हो यकीं तो ठीक है,
वरना तुम भी आज़मा लेना….
आएगी याद मेरी एक दिन,
इस बात पे गांठ लगा लेना….
ऊपर ऊपर से सवरां हूँ,
अंदर से बिल्कुल बिखरा हूँ…
गर वक्त हो कुछ लम्हो का,
कभी आके मुझे सिमटा देना…
बिन कहे धरा है मोन जो,
गलती क्या थी बतला देना…
अब धागे लगे मुझे डोर हैं,
सब पास मगर दिल से दूर हैं..
उलझ गया जीवन हैं सारा,
तुम बनके सुकून जीवन का,
हे प्रिये ! मुझे सुलझा देना…..
मैं एक परिंदा था बेखबर,
कुतरे लोगों ने जिसके पर,
ऊँचा उड़ने की ख्वाहिश है,
आशाओं के पंख लगा देना….
अब मुझे न कोई आस है,
दुःख बने मेरे सभी दास हैं,
इस सूने-सूने जीवन मे मेरे,
खुशियों के दीप जला देना….
मैं बंदा सीधा साधा था,
अपनी दुनिया मे राजा था,
मैं फिर से एक दिन चमकूँगा,
दुनिया में दम-दम दमकूगा…
जब कभी मैं होने लगू नीरस,
अभिप्रेरित मुझे करवा देना…
भर जाऊँ हर्षो उल्लास से,
शब्दों के बाड चला देना….
तुम हाथ मेरा जो थाम लो,
कभी स्नेह से मेरा नाम लो,
बिछादूँ पथ मे पुष्प तेरे,
बस तनिक सा तू मुस्का देना…
नहीं चाहिए कुछ भी तेरे सिवा
तेरी चंचलता ने मोह लिया,
उदेश्य है तुझको पा लेना,
कर डाला सारा हाल बयां,
तुमसे प्यारा ना कोई लगा,
चुप्पी को तोडो न अपनी,
लगता हूं कैसा मैं तुमको,
इससे भी परदा उठा देना….