मौदहा-हमीरपुर : सर ज़मीनें मौदहा अपनी तरह तरह की खुसूसयात व सिफात की बिना पर न सिर्फ मुल्क में बल्कि बैरूनें मुल्क में भी नुमायां हैसियत रखती है। यहां यू तो बड़े बड़े नामवर अफराद पैदा हुए लेकिन जिसने मौदहा को गैरमामूली शोहरत व एहमियत दिलाई,जिस नें मौदहा की अज़मत व शोहरत को सुरय्या से भी ऊपर पहुंचा, इस ज़मीन को हमेशा के लिए मोहतरम व मुकरम्म बनाया, वह ज़ात जिसने मौदहा में जन्म नही लिया था जो सैकड़ों मील दूर से यहां आए थे जो यहां के रहन, सहन, ज़बान, लिबास, तहज़ीब व रस्म-व-रिवाज से बिल्कुल नावाकिफ थे यहां के ज़र्रे ज़र्रे के लिए अजनबी थे मगर उस अजनबी के मुबारक क़दमों से मौदहा की ज़मीन को वह बरकत हासिल हुई कि सरज़मीनें मौदहा अजनबियों के लिए काबिले रश्क होगयी। उस फक़ीर के क़दमों से लग कर मौदहा को वह अज़मत व रिफत हासिल हुई के लोग इस बन्जर जमीन को क़दर की निगाह से देखने लगे।मौदहा आज जो कुछ भी है वह सब उसी अजनबी इन्सान की देन है जिसको आज दुनिया हज़रत मौलाना मोहम्मद सय्यद सलीम जाफरी रह० के नाम से जानती है।
तारीख का एक मामूली तालिब इल्म भी इस बात से वाकिफ है कि 1857 की जंगे आजादी में नाकामी के बाद हमारे मुल्क व बाशिन्दगाने मुल्क को जिन मुश्किलों व आज़माईशों का सामना करना पड़ा था उन को चन्द अल्फाज में बयान कर पाना आसान नही। मुल्क की तारीख में यह बहुत ही मुश्किल दौर था जिस में मिल्लत का शीराज़ा बिखर रहा था।हर तरफ मायूसी व ना-उम्मीदी के गहरे व स्याह बादल मंडला रहे थे, ऐसे में कौम को ऐसे रहनुमाओं की जरूरत थी जो इस तारीकी व मायूसी के दल दल से कौम को उम्मीदों भरी रौशनी की जानिब ले जा सकें। तारीकी में फंसी कौम की रहनुमाई के लिये जो शख्सियतें सामने आयीं यकीनी तौर पर उन में सर सय्यद अहमद खां का नाम सब से ज्यादा रौशन, जली, नुमाया व सरे फहरिस्त था।
यह बात किसी से छुपी नही है कि मुसलमानों को असरी तकाज़ो से रुशनास करानें में सर सय्यद अहमद खां को कितनी मजाहमतों, मुखालफतों व दुशवारियों का सामना करना पड़ा था। मगर सर सय्यद ने कभी हिम्मत नही हारी और इन मुखालफतों व दुशवारियों के बीच कुछ ऐसे मुवाविन व मददगार साथी उन्हे मिले जो उन के बाद भी उन के मिशन को जिन्दा रखने और उन की दिखाई हुई राह पर रौशनी फैलाने का फर्ज़ अन्जाम देते रहे इन में मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, शिबली नुमानी, और खान बहादुर, मौलवी बशीर उद्दीन (बानी इस्लामियां स्कूल इटावा) के साथ साथ मौलाना सय्यद सलीम जाफरी का नामे नामी व इसमें गिरामी भी शामिल है।1870-ई के शुरू में महगांव कस्बा ज़िला इलाहाबाद के उफक पर एक सितारा नमूदार हुआ जो उस वक्त के सय्यद मोहम्मद सलीम और बाद में दुनियां उन्हे सर सय्यद सानी मौलाना सय्यद मोहम्मद सलीम जाफरी के नाम से जानी और रहती दुनियां तक इसी नाम से जानती रहेगी।15नवम्बर 1973 को इस अज़ीम शख्सियत ने दाइये अजल को लब्बैक कहा तो मौदहा में अजीब उदासी फैल गयी। इसी तारीख को ऐहले मौदहा(मौलाना डे) के नाम पर उनकी याद मनाने की रस्म अदायगी करते है।
मौलाना मरहूम ने जिस मुजाहिदाना तरीके से जिन्दगी गुजार कर ईदारे कायम किये इससे ऐसा लगता है मानो तालीमी ईदारे कायम करना ही मौलाना का मक्सदे हयात था। वह चाहते थे कि बुन्देल खण्ड का हर बज्चा व हर बच्ची चाहे उस का ताल्लुक जिस मज़हब से हो वह इल्म की दौलत से माला माल हो जाऐ और जिन्दगी के हर मैदान में मिसाली कामयाबी हासिल करे। इसी फिक्र को लेकर आप पूरे बुन्देल खण्ड का दौरा करते रहे तकरीबन 20 बरस तक मुख्तलिफ शहरों व कस्बों में खिदमते खल्क करते रहे और बिलाखिर सर जमीनें मौदहा को अपना मसकन बनाय और आखिरी सांस तक मौदहा में ही रहे। और यहीं पर रहमानियां इन्टर कालेज की बुनियाद उसी अन्दाज मे डाली जिस अन्दाज मे सर सय्यद अहमद खां ने अलीगढ़ में मोहम्डन ऐंगलो ओरिऐण्टल(M. A. O.) कालेज और इटावा में मोलवी बशीर_उद्दीन ने इस्लामियां कालेज की बुनियाद डाली थी। शुरू में यह इदारा एक मिडिल स्कूल की हैसियत से कायम हुआ रहमानियां की इमारत के लिये जमीन कस्बे के एक मोअज्जिज बुजुर्ग मरहूम जनाब नूर_मोहम्मद साहब इन्सपैक्टर ने अतिया में दी थी। इमारत बनने के बाद 1928 में रहमानियां को हुकूमत से मन्ज़ूरी मिल गयी। रहमानियां के सबसे पहले हेड मास्टर जनाब लक्ष्मी_नारायन आनन्द हुए थे। रहमानियां कालेज को इन्टर कालेज का दर्जा जनाब रशीद अहमद गौरी के जमाने में हुआ जो रहमानियां के तीसरे प्रन्सिपल थे।
कालेज के लिये खेल और हास्टल की खातिर साजन तालाब की 20-बीघा जमीन उस वक्त के डिस्ट्रिक बोर्ड के चेयरमैन मुजाहिदे आज़ादी जनाब दीवान शत्रुघन से हासिल की।
जहां तक रहमानियां इन्टर कालेज की बात है तो यह कहना बहुत ही मौज़ू व मुनासिब होगा कि
नशे_मन पर मेरे बारे करम सारी ज़मी का है।
कोई_तिनका कहीं का है कोई तिनका कहीं का है।”
मौलाना मौसूफ की खुसूसियात में सब से बड़ी खुसूसियित हक गोई व बेबाकी थी।आप बहुत ही हक व सच बोलने वाले और कभी न किसी से डर ने वाले थे। हक का इज़्हार बड़ी बेबाकाना अन्दाज में कर देते थे। मौलाना ने कभी इन इदाराजात पर सियासत का दखल बर्दाश्त नही किया उन का कहना था कि तालीमी इदारों में सियासत का कोई दखल नही होना चाहिये”।मगर अफ़सोस वही इदाराजात आज सियासी अखाड़ा बने हुए हैं जहां अहिल व ना-अहिल किस्म के सियासी बीमार हज़रात ज़ोर आज़माईश करते रहते हैं। किस की नियत में खोट है या किस की नियत साफ है यह वह जानें या रब जाने। मगर इन्सान की फितरत है कि वह जाहिर को देख कर ही तबसरा करता है। इसलिये मुझे ऐसा लगता है कि शायद जिम्मेदारों की अकसरियत नें मौलाना के मिशन को आगे ज़िन्दा रखने की ईमानदाराना व मुखलिसाना कोशिश नही की, वर्ना यह इदारे इण्टर से डिग्री और मकतब से दारुलूउलूम बन चुके होते। यही वजह है कि मौलाना के ख्वाब को शर्मिन्द-ए- ताबीर न किया जा सका जिस का हमें अफसोस है। हमारी आपसी चपकलिश, अना व मफाद परस्ती ने मिल्ली इदारे रहमानियां व मकतब को लकड़ी में लेगें घुंन की तरह अन्दर से खोखला कर दिया है। जबकि बहुत पहले रहमानियां इण्टर कालेज को रहमानियां डिग्री कालेज व रहमानियां निस्वां कालेज बन जाना चाहिये था और मकतब भी एक अज़ीम दारुलूउलूम बन जाना चाहिये था। क्योंकि एक अर्से तक दोनों इदारों की मुखलिसीन व मुख्यर हज़रात भर पूर ताउन करते रहे हैं। रफ्ता रफ्ता दोनों इदारों की शाख कमजोर होती चली गयी तो लोगो ने भी ताउन करना कम कर दिया।
सर सय्यद सानी हज़रात मौलाना के बारे में लिखने के लिये चन्द सफात न काफी हैं। जिस ने पूरी जिन्दगी मौदहा व ऐहले मौदहा के लिये वक्फ कर दी हो उन की तारीफ व तौसीफ के लिये भी पूरी ज़िन्दगी ही चाहिये ।उन्ही की कोशिशों का नतीजा है जो मैं कुछ लिख सका और आप हज़रात इसे पढ़ रहे है। अगर मौलाना न होते तो शायद न मै कुछ लिख सक्ता और न आप कुछ पढ़ सक्ते सब तारीकी में जी रहे होते? मगर अल्लाह ताला का इन्तिज़ाम था जिस ने बन्जर जमीन को सैराब करने के लिये मौलाना मौसूफ का इन्तिखाब किया और मौदहा बुन्देल खण्ड भेजा।मौलाना जब यहां आए थे उस दौर में यहां मुसलमानों मेंबुतपरस्ती आम सी बात थी यहां तक मुस्लिम घरानों की औरते बाकायदा मन्दिरों मे जाया करती थी जिस को मौलाना मोसूफ अपनें हाथ में बेंत लेके मना करते थे। लोगों के घर घर जा कर बच्चों को स्कूल भेजने की तल्कीन करते थे।इन कामों में मौलाना को भी उन्ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा जो सर सय्यद को करना पड़ा। मौलाना जिस वक्त मौदहा में इल्म का दिया जलानें की जद्दोजहद में लगे हुए थे उसी बीच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी सरमाया की ज़बरदस्त ज़रूरत पड़ी तो हज़रत मौलाना ने उस दौर में इस इलाक़ा से तक़रीबन एक लाख रू चन्दा कर के यूनिवर्सिटी की खिदम में पेश किया जिस की क़ीमत आज बहुत ज्यादा होती है। मौलाना के इस खुलूस व ज़ज्बे को देख कर यूनिवर्सिटी के अरकान नें एक तक़रीब में सर सय्यद सानी के अज़ीम खिताब से नवाजते हुए एक तुर्की टोपी आप के सर पर पहना कर खैराजे तहसीन पेश किया। तभी से मौलाना सर सय्यद सनी के नाम से भी जाने जाने लगे। हजारों खुसूसयात के मालिक हज़रत मौलाना के इखलास व लिल्लाहिलयत का यह आलम रहा कि कभी किसी भी तकरीब या प्रोग्राम में कोई उन की तस्वीर नही खींच सका यही वजह है कि उस फ़रिश्ता-सिफ्त शख्स की एक भी तस्वीर दुनियां में नही है। राकिम ने उन की तस्वीर के लिए उन के घरानें के अफराद से भी राब्ता किया मगर सब ने कहा उन कोई तस्वीर नही है।
हजरत मौलाना की शख्सियत किस कद्र मकबूल, हर दिल अज़ीज़ व हमागीर थी इस का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सक्ता है कि उन के कायम किये हुए इदारों का मुआयना करने वालों में लार्ड माउण्ट बेटन, नवाब अहमद सईद खान साहब आफ छतारी नवाब मो0 इबराहीम, सय्यद अली ज़हीर वग़ैराह शख्सियात शामिल हैं।
पंडित नेहरू मौलाना आजाद पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त डा0 ज़ाकिर हुसैन मौलाना अब्दुल माजिद दरयाबादी और न जाने किन किन अज़ीम व अहिम कौमी व मिल्ली शख्सियतों से मौलाना मरहूम के मुखलिसाना ताल्लुक थे।
पंडित नेहरू, बल्लभ भाई पन्त व मौलाना आजाद आजादी की जद्दोजहद में अक्सर मौलाना के महमान रक चुके थे।
मौलाना साहब ने जिन्दगी में खिदमतेखल्क का कोई भी मौका हाथ से जाने नही दिया। नवाब भोपाल की खुसीसी दावत पर आप ने सन् 1947 ता 1950,तक औकाफ के नाज़िम की हैसियत से भी काम किया।
मौलाना की बेलौस खिदमात को देख कर बस दिल से यही दुआ निकली है कि या रब्बे-कैनात हज़रत मौलाना की कबर को नूर से भर दे व उन के मिशन को मज़ीद बढ़ाने के लिये इदारों के जिम्मेदारों को हिम्मत, हौसला व हिदायत अता कर दे।आमीन।
अल्ताफ हुसैन हाली ने सर सय्यद के बारे में जो अशआर कहे हम उन्ही अशआर को सर सय्यद सानी मौलान सलीम जाफरी के लिए लिख कर उन्हे करोड़ो दुआऐ पेश करते हैं।
तेरे अहसान रह रहकर सदा याद आऐंगें उन को
करेगें ज़िक्र हर मजलिस में और दोहरायेंगें उन को
गुनाहों के अन्धरे में चरागें ज़ूफ़िशां बन कर
जो मौलाना नही आते तो कैसे रौशनी होती