अवधनामा संवाददाता
साहित्य और कला जगत में आराधना का स्वरूप
ललितपुर। गणेशोत्सव के शुभारम्भ पर आयोजित परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यलय के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि हमारी संस्कृति में कार्य के शुभारंभ में श्री गणेश इसलिए कहा जाता है कि कर्ता पूर्ण निष्ठा और सकारात्मकता से कार्य निष्पादित करें। हमारे साहित्य और मूर्ति कला में गणेश जी और उनके प्रतीकत्व का बड़ा सटीक चित्रण किया गया है। ललितपुर जनपद के गांव बानपुर से 2 किलोमीटर दूर गणेशपुरा की नृत्य करती गणेश प्रतिमा ललितपुर के लालित्य का बेजोड़ उदाहरण है। इस षोडश भुजी मूर्ति में गणेश जी के चंद्रमा की तरह 16 गुण अपने संपूर्ण कलात्मक वैभव से आलोकित हैं। घंटाघर पुरानी कोतवाली स्थित मूर्ति भी हमारी उत्कृष्ट कला की परिचायक है। बुन्देलखण्ड के निरूपाय किसान अपनी नोंन-तेल-लकड़ी की मुँह वा रही समस्याओं से, जब जूझते हैं, तो टेर लगाते हैं सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहें गणेश तो हमारी चढ़ती वेल कौन बैरी उतार सकता है ? अपनी अटपटी बुंदेली बोली में वह करता है-ओ! मोरे दल के सिंगार (देवसेना के श्रृंगार गणेश) उलायतें अइयो (जल्दी), जा मोरी वीदन निवारियो (निवारण)। बुंदेली गीतों में कहा गया है गणेशजी -सूपा जैसे कानों को फटक कर बार-बार शिक्षा देते हैं कि सूपा की तरह तुच्छ बातों को कानों से दूर रख कर, सार-सार ग्रहण करो। देवासुर संग्राम में जीत दिलाने वाले दलपति गणेश रिद्धि- सिद्धि दायक, अपने उपासक की हारती कैसे देख सकते हैं ? ऐसे जन के देवता को शत शत नमन। बुंदेलखंड में अधिकतर ग्रामीण अपने बच्चों के नाम दलपत या दलपति, गणेश रखते हैं, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट लालसा रहती है कि उनकी संतान शंकर सुमन पार्वती नंदन की तरह गुणवान बने।
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