एस.एन.वर्मा
कांग्रेस अपने शीर्ष नेतृत्व मसला का अभी तक नहीं सुलझा पाई है देश का मसला कैसे सुलझायेगी। पैदल यात्रा में सीविल सोसायटी को साथ ले रही है। यह तो कांग्रेस की कमजोरी ही कही जायेगी कि देश की गै्रन्ड पार्टी में अब इतनी शक्ति नही है कि कोई अन्दोलन या मुहिम चला सके। यात्रा का नेतृत्व तो राहुल गांधी करेगे पर छाप सोनिया गांधी की ही रहेगी। सीविल सोसायटी में ऐसे लोग भी है जिन्होंने काग्रेस का विरोध किया है। अन्ना अन्दोलन में उनके साथ रहे है।
जयराम रमेश और द्विगविजय सिंह ने यात्रा का उद्देंश्य बताया है लोगो को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दे के प्रति जागरूक बनाना है। लोगो से जुड़ना है। क्या लोगों को समझ पर विश्वास नही है जो जागरूक बनायेगी। लोगो से जुड़ने की भी बात कही है। लोगो से जुड़ाव तो काम के बल पर होगा, उनकी समस्याओं का हल करने से होगा। इसमें तो अन्य पार्टियों को साथ लेकर यह काम जागरूक विरोध पक्ष बनकर सकारात्मक कदमों द्वारा उठाया जाना ज्यादा प्रभावी होगे। सही आलोचना कर सदन में अन्य पार्टियों को साथ लेकर सत्ता पक्ष पर विचारो और शब्दों से दबाव बनाकर किया जाना प्रभावी होगा। न कि जनता में भाषण बाजी करके कि हमें यह करना है वह कहना है। सवाल है कब करना है।
अगर विरोध की कोई पार्टी समक्ष नहीं है तो अन्य विरोधी पार्टी के सदस्यों को साथ लेकर प्रभावी विपक्ष बनाकर मुद्दा पर बहस कर सत्तापक्ष को वान्छित नतीजे पर लाया जा सकता है। पर कांग्रेस का अपने का श्रेष्ठतम होने की भावना, अतीत का एक क्षत्र राज्य का याददाश्त विरोधी पार्टियों से मिलने नहीं देती। वह सभी से दूरी बनाये रहती है अपनी श्रेष्ठता थोपने की कोशिश करती है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में अपने को अलग-थलग रक्खा। यह मौका होता है। विरोध पक्ष के साथ तालमेल बैठाने और सौहाद्रपूर्ण सम्बन्ध बनाने का जिसे कांग्रेस ने खो दिया। कई पार्टियां कांग्रेस की एरोगेन्सी से इतनी आहत है कि वे कांग्रेस को साथ लेने के लिये तैयार नही है।
ऐसे में कांग्र्रेस को गैरराजनीतिक पार्टियों का सहारा लेना पड़ रहा है। देश में पदयात्रा कोई नई बात नहीं है पर वे सही सन्दर्भ होती रही है। बड़े प्रभावी और तपेनेता पदयात्रा करते रहे है। इस यात्रा से कांग्रेस कितनी सशक्त होकर उभरेगी। कितने युवाओं से जुड़ पायेगी यह तो बाद में ही पता चलेगा। पर यह तो निर्विवाद है कि अभी राहुल गांधी जेपी विनोब भावे के स्तर तक नहीं पहुंचा पाये है। यह भी सत्य है भविष्य उनके साथ है। पर सोनिया गांधी की छाया कब तक चलेगी।
पार्टी की अन्दरूनी हालत यह है कि उनके वरिष्ठ और काबिल नेता, तपतयदि कांग्रेस नेता पार्टी से अलग होते जा रहे है। ये पार्टी के नगीना रहे है। कपिल सिब्बल, आनन्द शर्मा जैसे कद्दावर और पार्टी की इज्ज़त बढ़ाने वाले नेता रहे है पार्टी से अलग हो गये है। शशिथारूर कांग्र्रेेस में ही है पर उनकी काबलियत के अनुरूप पार्टी उनका उपयोग नही कर रही है। आईएफएस के शशिथारूर की सेवा विदेश और यूएनओ में सराहनीय रही है। जी-23 के नेता सभी आजमाये हुये काबिल नेता है जिनके राय की अनदेखी होती रही है, अभी भी उन्हें लेकर लीपा पोती ही चल रही है। कहने का मतलब पहले घर को मजबूत करें कांग्रेस घर मजबूत होगा तो बाहर भी आपकी बात सुनी जायेगी। दूसरी पार्टियों भी तरजीह देगी। विरोध रचनात्मक हो। जनता महसूस करें आप सचमुच उनकी लड़ाई लड़ रहे है। आप सचमुच उनकी नही लड़ रहे है।
लग रहा है कांग्रेस आउट सोसिंग कर रही है। एनजीओ को लेकर जबकी उसे अपनी लड़ाई अपने दम पर लड़ कर ऊपर उठना चाहिये वह दूसरे के कन्धे का सहारा ले रही है। अभी तक पार्टी प्रेसिडेन्ट का मुद्दा हल नहीं कर पाई। देश के मुद्दे को कैसे हल करेगी। सोनिया गहलौत का पार्टी प्रेसिडेन्ट के लिये मना रही है, और गहलौत राहुल गांधी को मनाना चाहते है। उसके सोच और कार्य में कितनी दूरी है इसी से जाहिर होता है। होना यह चाहिये था कि लोगो के दिखे की कांग्रेस अपनी लड़ाई ऊपर उठने के लिये खुद लड़ रही है राजनैतिक पार्टी के रूप में। आत्मविश्वास की साफ कमी दिख रही है। पार्टियां आत्मविश्वास के बल पर जीरो से हीरो बनती रही है। भाजपा इसका ज्वलन्त अदाहरण है।