शाहशांह जहांगीर के सुनहरे सिक्कों की तलाश

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एस.एन.वर्मा
खोजी इतिहास बड़ा दिल चस्प होता है। क्योंकि इसमें कई दन्त कथाऐं और आफवाह भी होती है जिन्हें सावधानी पूर्वक समझ कर इतिहासकार अलग करता है और प्रमाणों का इकट्ठा कर सही तथ्य तक पहुंचता है और सभी का अवगत कराता है। शाहंशाह जहांगीर के समय में सोने का एक सिक्का और शाह जहां के काल में एक सोने के सिक्का ढाला गया था। पहला 12 किलोग्राम का था कहते है इतना बड़ा और वज़नी सिक्का आज तक दुनियां में नहीं ढाला गया। दूसरा सिक्का एक किलोग्राम का था। 12 किलोग्राम वाले सिक्कों को जहांगीर ने नाम दिया था कौकब-डे-ताली। दोनो सिक्को इस समय कहा है इसके तलाश में इतिहासकार और सीबीआई लगे हुये है। हैदराबाद से लेकर पर्शिया तक का चक्कर लगा रहे है।
दोनो सिक्के आखिरी बार आसफ जही वंश के साथ देखे गये थे। तबसे इतिहासकार और सीबीआई दोनो मिलकर टुकड़े-टुकड़े तथ्यों को जोड़कर पता लगाने की कोशिश में लगे हुये है कि कैसे सिक्के ग्रेट मुगलों से होकर निजाम हैदराबाद तक पहुचे यह भी पता लगा रहे है ये सिक्के इस समय कहां है।
अखिरी शताब्दी में 12 किलोग्राम के सिक्के को हैदराबाद के आठवें नाममात्र के निजाम मुकर्रम जाह को उत्तराधिकार में पाते देखा गया था। आखिरी बार 1987 में योरप के एक बैंक में देख गया था। उस समय यह समाचार के सुर्खियों में आया क्योंकि मुकर्रम स्विटजरलैड में एक नीलामी में एक किलोग्राम वाले सिक्के के साथ इसे बेचने की कोशिश में लगे हुये थे। उस समय इनकी कीमत 16 मिलियन पौन्ड लगी थी।
जहागीर के शासनकाल में सिक्को के ढलाई का माहौल से पता चलता है सत्रवीं शताब्दी के शुंरूआत हिस्से में भारी भरकम और राशिचक्र वाले सिक्के ढलने शुरू हो गये थे। इन विशाल टुकड़ों का जिक्र उस समय के विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरण में भी मिलते है। जिनमें प्रमुख है वेनेटियन निकालो मनौसी और अंग्रेज कैप्टन हाकिन्स मनौसी ने लिखा है ये सिक्के सिक्को के आम चलन में नही रहते थे। मोगल शाहंशाह इन्हें भेट में देते थे राजदूतों को विशेष अतिथियों को उनके संग्रहो में ये महत्वपूर्ण कीमती आइटम होते थे।
जहांगीर अपनी आत्मकथा में बताते है जो तुजुकई जहांगीरी के नाम से विख्यात है कि एक सोने की मोहर जिसका वजन 1000 तोला था उसको इरान के शाह के राजदूत यादगार अली को भेंट किया था। यादगार अली राजदरबार में 19वें फरवरदीन को उपस्थित हुये थे। जो शांहशाह का आठवां साल था यशियन कलेन्डर के हिसाब से जो अप्रैल 10,1612 को पड़ता है। अली जहांगीर के पास भेंट के साथ श्रद्धान्जली देने के लिये आये थे अकबर के मृत्यु पर शोक पत्र के साथ। आश्चर्य चकित कर देने वाला सिक्का कौकब-ई-ताली जो 11935.8 ग्राम का था उसका व्यास 20.3 सेन्टीमीटर था और वह आगरा में ढाला गया था ऐसा अली बताते है।
इस विषय के दो अधिकारिक विद्वान एसएच होडीवाला और पी.एल.गुप्ता बताते है इन सिक्को पर दन्तकथाओं के उकेरने कि कला कितनी मुशकिल रही होगी। उकरने वाले कारीगरों को ढलाई के लिये भारी भरकम मजदूरी दी जाती थी। क्योकि ये सिर्फ सिक्के नही बनाते थे बल्कि बनाने के बाद उस पर पर्शियन लीपी भी उभारते थे विभिन्न तरह के सुलेख के रूप में।
अगर हमोर पास इन सिक्को के पर्शिया जाने का विवरण है तो एक दूसरा विवरण हैदराबाद जाने का भी है। ईश्वर दास नागर की फतूहत-ई-अलमगिरी बताती है जब बीजापुर को जीता जा रहा था तो शाहशंह औरंगजंेब राहत सामग्री थके और भूखे मोगल सैनिको भेजने के लिये व्यवस्था कर रहा था। तब बनजारे 5000 बैलो पर गेंहू, चावल दूसरे अनाजो के साथ कुछ खजाना भी राजकुमार मोहम्मद आजम के कैम्प में लेकर पहुचंे। इस ब्रिगेड की देख रेख गा़जीउद्दीन खान बहादुर रूमस्त खान, अमानुल्ला खां और कुछ अन्य कर रहे थे।
यह कहा जाता है आभार प्रदर्शन में औरंगजे़ब ने 1000 तोले का भारी सिक्का गाज़ीउद्दीन खां फिरोज़ जंग प्रथम को भेट में दिया। जिसे फिरोज जगाने बाद में दे दिया। आजादी मिलने तक सिक्का आसफजाह प्रथम के पास बना रहा।
यही वजह है जब हैदराबाद ढलाई केन्द्र ने इस महाने के शुरूआत में सैफाबाद में सिक्को की प्रदर्शनी लगाई तो जहागीर के 1000 तोले के सिक्के की बड़ी तस्वीर लगाई और इसे नाम दिया। हैदराबाद का गर्व।
ऊपर के विवरणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक 1000 तोले का सिक्का पहुंचा और दूसरा इसी वजन का सिक्का आसिफ जहां के पास रहा हैदराबाद में तो क्या जहांगीर ने ऐसे दो सिक्के ढलवाये थे सवाल उठता है। अगर एक सिक्का इसमें से हैदराबाद में रहा तो दूसरा कहां रहा। दोनो सिक्को के बारे में तस्वीर अभी साफ नही हुई है। इसलिये खोज जारी है।

 

 

 

 

 

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