अवधनामा संवाददाता
ललितपुर। सिखों के आठवें गुरुश्री हरकिशन जी महराज का प्रकाशपर्व गुरूद्वरा साहिब लक्ष्मीपुरा में बड़े ही श्रद्धा व उत्साह के साथ मनाया गया। इस अवसर पर साप्ताहिक पाठ साहिब की समाप्ति स्व.सरदार अवतार सिंह के परिवार की ओर से हुई। सुबह से ही गुरुद्वारा साहिब में गुरबाणी के पाठ व कीर्तन का आयोजन हुआ। मुख्य ग्रन्थी ग्यानी हरविंदर सिंह व ग्यानी आदेश सिंह द्वरा गुरबाणी के मनोहर कीर्तन श्रीहरि किशन धीयाईये जिस डिठे सब दुख जाए के गुरबाणी कीर्तन का जस गायन हुआ। मुख्य ग्रन्थि ग्यानी हरविंदर सिंह ने कहां की श्रावण कृष्ण पक्ष नवमी संवत 1713 विक्रमी अनुसार 23 जुलाई सन् 1656 ई. को कीरतपुर साहिब में जन्मे। सातवें गुरु श्री गुरु हरि राय जी उनके पिता थे, जबकि उनकी माता का नाम माता किशन कौर था। गुरु श्री हरि राय जी ने ज्योति-जोत समाते समय सभी प्रकार से श्रेष्ठ एवं समर्थ मानते हुए हरकिशन जी को 1661 में गुरुगद्दी सौंपी। गुरु हरकिशन जी की आयु तब मात्र पांच वर्ष थी। इसीलिए उन्हें बाल गुरु कहा गया। आठवें गुरु ने मात्र तीन वर्ष तक सिखों का नेतृत्व किया और 1664 ई. में सिर्फ आठ वर्ष की उम्र में चेचक के कारण ज्योति-जोत समा गए। गुरु सिंह सभा के अध्यक्ष ओंकार सिंह सलूजा ने कहां की गुरु जी का जीवन-काल केवल आठ वर्ष का था, परंतु यह छोटा-सा जीवन अनेक प्रसंगों से भरा पड़ा है, जो बालगुरु के विराट व्यक्तित्व की अदभुत झांकी दिखा जाता है।गुरु हरकिशन जी अत्यंत गंभीर एवं सहनशील प्रवृत्ति के थे। छोटी अवस्था होते हुए भी वे आध्यात्मिक साधना में रत रहते। सप्तम गुरु और पिता अकसर बड़े पुत्र राम राय और छोटे पुत्र हरकिशन जी की परीक्षा लेते रहते। जब बाल गुरु गुरुबाणी पाठ कर रहे होते तो उन्हें सुई चुभाते, परंतु बालक हरकिशन जी गुरुबाणी में रमे रहते। वरिष्ठ उपाध्यक्ष हरविंदर सिंह सलूजा ने कहाँ की सातवें गुरु हरि राय जी ने मुगल दरबार में गुरुबाणी की गलत व्याख्या करके बादशाह को खुश करने वाले बड़े पुत्र राम राय का परित्याग कर दिया था। जब राम राय को हरकिशन जी के गुरु बनने का पता चला, तो वह ईष्र्या से बौखला उठा। उसने औरंगजेब को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया। औरंगजेब ने गुरु जी को दिल्ली लाने का आदेश दिया। उसने गुरुजी के शिष्य राजा जयसिंह को यह काम सौंपा। बालगुरु ने राजा जयसिंह का आग्रह तो मान लिया, परंतु यह भी स्पष्ट कर दिया कि वे बादशाह से नहीं मिलेंगे। दिल्ली जाते समय मार्ग में कुरुक्षेत्र के पास पंजोखरा में गुरु जी ने विश्राम किया। यहां उन्होंने एक अभिमानी व्यक्ति को विनम्रता अपनाने की शिक्षा दी। दिल्ली पहुंचकर बालगुरु राजा जय सिंह के महल में ठहरे। गुरु जी की महिमा से हैरान औरंगजेब ने राजा जय सिंह से कहा कि वह गुरु जी की आध्यात्मिक शक्ति की परीक्षा ले। राजा जय सिंह ने महारानी, रानियों और दासियों को एक जैसे वस्त्र-आभूषण पहना दिए और गुरु जी से महारानी को पहचानने को कहा। गुरु जी ने महारानी को आसानी से पहचान लिया। कोषाध्यक्ष परमजीत सिंह छतवाल ने कहां बालगुरु के दिल्ली प्रवास के दौरान ही वहां चेचक की महामारी फैल गई। गुरुजी चेचक रोगियों की देखभाल और सेवा में जुट गए। अंतत: गुरुजी भी चेचक की गिरफ्त में आ गए। जीवन अवधि पूर्ण होने का आभास पाते ही गुरु जी ने सिखों को ‘बाबा बकाले’ कह कर अगले गुरु तेग बहादुर जी का संकेत किया और चैत्र शुक्ल पक्ष में चौदहवीं संवत् 1721 विक्रमी सन् 1664 ई. को ज्योति जोत समा गए। जय सिंह के महल के स्थान पर अब गुरुद्वारा बंगला साहिब स्थित है इस अवसर पर लँगर का आयोजन भी स्व.अवतार सिंह के परिवार ओर से हुआ इस मौके पर गुरूद्वरा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष ओंकार सिंह सलूजा, संरक्षक जितेंद्र सिंह सलूजा, वरिष्ठ उपाध्यक्ष हरविंदर सिंह सलूजा, मंत्री मनजीत सिंह एडवोकेट, कोषाध्यक्ष परमजीत सिंह छतवाल, चरणजीत सिंह, गुरुमुख सिंह, पर्सन सिंह, बलजीत सिंह, गुरबचन सिंह सलूजा, हरजीत सिंह, गुनबीर सिंह,सुरजीत खालसा, आनंद सिंह,सुरजीत सिंह,सतनाम सिंह देलवारा,मेजर सिंह,श्रीमती बिन्दु कालरा, गुरप्रीत कोर,अमरजीत कोर बक्शी,तेजवंत सिंह,मनमीत सिंह सलूजा,सतनाम सिंह डिम्पी,अरविंदर सागरी,अमरजीत सिंह ,मनजीत सिंह,मैनेजर केदार सिंह पिंटू आदि उपस्थि थे संचालन सुरजीत सिंह सलूजा महामंत्री ने किया।