एस.एन.वर्मा
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प्रशान्त किशोर जो चुनाव के राजनितिकार कहे जाते है जिन्होंने हर चुनाव में किसी न किसी पार्टी को जीत के लिये राहबताई है इस समय लगता है खुद अपने लिये कोई रणनीति नहीं बना पा रहे है। जब नेताओं के पास कोई विज़न नहीं रहता तो वे पदयात्रा पर निकलते है या आत्मचिन्तन करते है। अभी तक प्रशान्त एक कम्पनी की तरह काम कर रहे थे जो अपने ग्राहकों को चुनाव जीतने का नुस्खा बताने का काम करता रहा है। अभी भी दक्षिणा में उनके साथ का आदमी किसी पार्टी से जुड़ा हुआ है। हाल तक तो यह शोर रहा है कि वह कांग्रेस के लिए चुनाव की रणनीति बना रहे है, और कोई योजना कांग्रेस के सामने रक्खी भी जिस पर सोनियां गांधी ने कुछ वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठ कर चर्चा भी की है। फिर कांग्रेस के चिन्तन शिविर के आयोजन के पहले यह खबर चली की वह कांग्रेस में जा रहे है। पर अब उन्होंने खुद ही कहा है कि वह कांग्रस में नहीं जा रहे है। वैसे कांग्रेस के ज्यातर लोग उन्हें पसन्द नहीं करते है और वे चाहते भी है कि वे कांग्रेस में न आये। यह भी कहा जाने लगा था की वो अपनी कोई नई पार्टी बनाने जा रहे है पर इसका भी प्रशान्त किशोर ने खन्डन किया कि वह कोई पार्टी बनाने नहीं जा रहे है।
अब उन्होंने निर्णय लिया है कि गांधी जयन्ती के मौके पर चम्पारण से बिहार तक तीन हजार किलोमीटर की पदयात्रा पर निकलेगे। उनके दिमाग में अपने बारे द्वन्द चल रहा है कि वे देश के परिप्रेक्ष में क्या सक्रिय भूमिका निभाये। यह भी चर्चा चल रही है कि प्रशान्त किशोर और उनकी टीम ने बिहार के 17-18 हजार लोगों की पहचान की है जिनसे मिलकर अगस्त सितम्बर तक उनसे मुद्दे जाने जायेगें। प्रशान्त किशोर यह भी कह रहे है कि वह कोई नई पार्टी बनाने नही जा रहे है, फिर यह भी कह रहे है अगर लोग चाहेगे तो नई पार्टी बनेगी पर यह उनकी पार्टी नहीं होगी लोगो की पार्टी होगी। यह बताता है कि रणनीतिकार की मनस्थिति इस समय किस कदर डवाडोल है। जो अब तक दूसरो को राह बताता रहा है वह खुद राह की तलाश में है।
इन सब बातों से साफ जा़हिर होता है कि प्रशान्त अपने बलबूते पर राजनीति में किसी अहम भूमिका की तलाश में है। पर प्रशान्त की एक कमजोरी यह दिखती है कि अभी तक जिन लोगों को चुनाव प्रचार का तरीका बताकर जितवाने का दावा किया है और राजनीति में उनसे जो कुछ कहवाया या करवाया उसे किसी अन्जाम तक नहीं पहुचवा सकें। यह पार्टी नेताओं की नहीं उनकी व्यक्तिगत अक्षमता है। उदाहरण के लिये पहले जेडीयू के लिये उन्होंने बात बिहार की नाम से अभियान चलवाया था न तो असका कोई असर देखने को मिला न तो उससे कोई बात बनी। इसके बाद वे पश्चिम बंगाल चले गये टीएमसी की मदद करने के लिये।
अगर बिहार में प्रशान्त अपनी पार्टी बना पाते है तो उनके सामने बिहार के लोगो के स्वभाव को लेकर बहुत बड़ी समस्या से दो दो हाथ करना पड़ेगा। बिहार का अभी तक का इतिहास है कि वहां चुनाव विकास या किसी मुद्दे को लेकर न तो लड़ा गया है न जीता गया है। वहां जाति बहुल सोच है इसी लिय वहां चुनाव जात के आधार पर लड़े जाते है और जीते जाते है। प्रशान्त ब्राहमण है अगर उन्हें बिहार के ब्राहमणों से कुछ उम्मीद पाल रक्खी हो तो यह जान ले बिहार में ब्राहमण सिर्फ पांच प्रतिशत है और वे भी पहले से भाजपा का पल्ला पकड़े हुये है। ऐसे में उनको राजनीति में जिस अहम भूमिका की तलाश में है वह कैसे मिल पायेगी।
ऐसे में बिहार के सामने वह कौन सा माडल पेश करेगे। उनके लिये अपना आधार बनाना ही असम्भव से लगता है। ब्राहमण के अलावा बिहार में जो जातियां है। उनकोे सामाजिक न्याय का घुट्टी पिलाकर लालू यादव और जीतन मांझी ने अपने अपने पाले में बांध लिया है। दो साल पहले जेडीयू से वे निकाले जा चुके है। इन सब हालात के बीच प्रशान्त के लिये बिहार मे तो कोई जगह बनती नहीं दिखती है। वहां वह अपने आधार ही नहीं बना पायेगे। ऐसे नहीं कि प्रशान्त सब समझ नहीं रहे है। इसीलिये वह अपनी भूमिका को लेकर चौराहे पर खड़े नज़र आ रहे है।