एस.एन.वर्मा
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मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीशों के सम्मेलन प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायधीशों के अध्यक्षता में सम्पन्न होना भारतीय लोकतन्त्र के मंगल का प्रतीक है। चर्चा में न्यायिक अधोसरचना के भौतिक संरचना पर इमानदारी पूर्वक बिना किसी पूर्वाग्रहक, बिना किसी के ऊपर दोषारोपण किये स्वस्थ वातावरण में चर्चा की गई। जजों की कमी और आम आदमी की न्यायपालिका तक आसान पहुंच पर बात हुई। कोर्ट में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पर चर्चा में कहा गया न्यायिक भाषा को सरल बनाई जाय, स्थानीय भाषा का इस्तेमाल किया जाय, कानूनों को मानवी पक्ष का ध्यान रखकर बनाया जाये। बेल देने में मानवी पक्ष पर विचार करते हुये तेजी लायी जाय जिससे जेलों में बेल के अभाव में पडे़ तकरीबन साढ़े तीन लाख विचाराधीन कैदियों को यातना से आजादी मिले। कानून और सज़ा आदमी को सुधारने की दृष्टि से बनाया जाना चाहिये न कि उन्हें प्रताड़ना देने या मारने के लिये।
भारतीय जनसंख्या को देखते हुये और मुकदमों की संख्या को देखते हुये सबसे बड़ी दिक्कत जजांे के कमी की आती है। लम्बित मुकदमों की संख्या दहलाने वाली है। एक शख्स जज के अभाव में केस की सुनवाई में 36 साल गुज़ार कर निर्दोष रिहा होता है। कितना अमानवीय परिदृश्य है। जिन्दगी का सबसे बेहतरीन हिस्सा वह जेल बिता देता है फिर उसकी जिन्दगी में आगे के लिये क्या बचता है।
इस दिशा में पहले तो जजों की नियुक्ति को सरल बनाया जाये। उनके नियुक्ति की प्रक्रिया में कार्यपालिका का और न्यायपालिका दोनों तरफ से असाधारण देरी होती है। प्रस्ताव तैयार करने और शासन के भेजने में असाधारण विलम्ब किया जाता है। उसी तरह शासन में भी प्रस्ताव प्राप्त हो जाने पर काफी देर किया जाता है। बीच में कुछ स्पष्टीकरणों कुछ तकनीकी मुद्दों को लेकर कार्यपालिका का और न्यायपालिका के बीच फाइल दौड़ती रहती है। इसमें सुधार लना बहुत जरूरी है। हालाकि सभी के लिये समय सीमा तय है पर उसे कोई गम्भीरता से नहीं लेता है। समय सीमा का सख्ती से पालन हो इस पर कार्यवाई बहुत जरूरी है।
कोर्ट में इस्तेमाल होने वाली भाषा को लेकर भी चर्चा हुई। स्थानीय भाषा को प्रयोग में लाने पर बात हुई। निचली अदालतों में तो स्थानीय भाषा चलती है। पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लिये व्योहारिक कठिनाइयां है। क्योंकि यहां जज दूसरे प्रदेशों से आते है इसलिये उनसे स्थानीय भाषा की अपेक्षा करना अव्योहारिक है। स्थानीय भाषा का प्रयोग आम जनता के लिये उपयोगी है क्योंकि उनकी पहुंच इससे न्यायपालिका तक आसान हो जाती है।
लम्बित केस और बेल के लिये लटके अभियुक्तों के कार्यपालिका इसके लिये जिम्मेदार है साथ ही सरकारें भी इसके लिये जिम्मेदार है।
जिक्ऱ हुआ लोकसभा और विधानसभा में बिना बहस के प्रस्ताव पास कराकर कानून बना दिये जाते है। जिसकी वजह से बहस के अभाव में पास हुये कानून में बहुत सी कमियां रहती है। जिसको लेकर बहुत से पीटीशन भी दायर होते है। जो न्यायालय के बोझ को बढ़ाते है। यह भी बात सामने आई कि कार्यपालिका अपने दायित्वों का न्यायपूर्ण पालन नहीं करती है। झूठा दोषारोपण, बनावटी मुकदमें, बदला लेने की भावना से दायर मुकदमें यह सब न्यायापालिका के बोझ को बढाते है। लोकतन्त्र की जगह पुलिसतन्त्र की स्थापना हो जाती है। पुलिस झूठे मुकदमे बनाकर लोगों को फसाती है बेकार में प्रताड़ित भी करती है। इसके अलावा पुलिस जांच में बहुत समय लगाती है। कार्यपालिका न्यायलय के आदेशों के पालन में बहुत ढीलापन वरतती है।
कार्यपालिका न्यायसंगत ढग से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे तो अपने आप मुकदमें कम हो जाय। गैर जिम्मेदारान तरीके से कार्यपालिका का काम करती है तो उससे प्रभावित लोग कोर्ट की शरण में जाते है। अगर कार्यपालिका सही ढंग से काम करे तो अपने आप मुकदमों में भारी कमी आ जाये। निरंकुश कार्यपालिका न्यायलपीन समस्यायों को बढ़ाती है।
चीफ जस्टिस ने स्टेट और सेन्टूल लेवल पर अलग स्टेटयूटरी बाडी बनाने का प्रस्ताव दिया। प्रधानमंत्री ने कहा इससे और न्यायपालिका का बोझ बढ़ेगा। राज्य हाईकोर्ट से सम्बन्धित मामलों में दिशा निर्देश लेते है लेते रहे यही ठीक होगा।
इस बैठक की खासियत यह रही कि किसी भी पक्ष ने किसी पर दोषरोपण करने का भाव नहीं दिखाया। पूरी निष्ठा और इमानदारी से व्याप्त व्याधियों पर चर्चा की सही दिशा मे ंआगे बढ़े। उम्मीद है इस चर्चा से कुछ फलदायी परिणाम निकलेगे। आगे भी इस तरह की बैठके स्वागत योग्य होगी जहां एक दूसरे को सम्मान देते हुये परिचर्चा करेगे।