साहित्य-संगीत-कला के विकास का मनोवैज्ञानिक सच

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साहित्य-संगीत-कला के विकास का मनोवैज्ञानिक सचसाहित्य,संगीत और कला के समन्वित रूप का श्लोक प्राय:सुनते-पढ़ते हैं-साहित्य संगीत कला विहीन:,साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन:|तात्पर्य है कि साहित्य, संगीत और कला-ये भद्र जन द्वारा दिया गया शब्द है|किंतु, पहले तो मानव भद्र नहीं था,तो प्रश्न उठता है कि क्या साहित्य, संगीत और कला का कोई ऐसा रूप नहीं था, जिसके जरिए लोग मनोरंजन करने के साथ-साथ अपनी प्रवृत्तियों में परिष्कार भी कर सकें?मालूम होता है कि इनके रूप पहले से यानी आदिम समाज से ही अस्तित्व में रहे होंगे.किंतु यह अपनी भाषा या बोली में पढ़ते-सुनते रहे होंगे.बाद में क्रमश: आदिम समाज संघर्ष करते-करते सभ्यता के सीढ़ियों पर चढ़ने लगा.फिर वह साहित्य,संगीत,और कला जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों को परिवर्तित एवं परिवर्द्धित करके उसका लोक-संग्रह करने लगा.ऐसे लोक-संग्रह से वह स्वयं तो प्रकाशित होता ही था साथ ही और भी लोगों की चेतना को जागृत करता था.धीरे-धीरे इसी तरह साहित्य,संगीत और कला के रूपों का भी विकास मानवीय वृत्तियों के विकास के साथ-साथ होता चला गया.इन्हीं विकसित वृत्तियों को शिष्ट जन साहित्य,संगीत और कला के नाम से अभिहित करने लगे.


साहित्य के प्रमुख अंग माने जाते हैं-कहानी, नाटक, काव्य, उपन्यास तथा अन्य गद्य विधायें.कहानी रूपाकार में छोटी होती है.यह कम समय में पूरी की जा सकती है.और इसके माध्यम से ज्यादा रोमांच पैदा किया जा सकता है.कहानी के आधुनिक तत्त्व आदिम समाज में हू-ब-हू नहीं रहे होंगे;लेकिन कहानी कहने और सुनने की प्रथा आदिम समाज में ज़रूर रही होगी.हम देखते हैं कि आज भी अनपढ़ लोग राजा-रानी की कहानी कहते और सुनते हैं.प्रकारातंर से कहें तो माँ अपने बच्चे को रात में सोते समय अपने परिवेश के अनुसार गढ़ी हुई कहानी को सुनाती है.इससे चाहे-अनचाहे बालक के चित्तवृत्ति में परिष्कार होता है.बच्चे को माँ या अभिभावक परिष्कृत एवं कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए अनपढ़ होते हुए भी कुछ ऐसी कथायें सुनाते हैं जिसका बच्चे के मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.वह बालक या बालिका सुनाई गई कहानी के पात्रानुसार व्यवहार करने के लिए तत्पर एवं व्याकुल रहते हैं.
साहित्य शब्द का प्रयोग भले ही भामह ने `शब्दार्थौ सहितौ काव्यं´कहकर किया है,किंतु साहित्य के ये तत्त्व बहुत पहले से प्रथा में चले आ रहे थे.इसी तरह संगीत और कला के उद्भव के विषय में भी कहा जा सकता है.
कला एक ऐसी प्रायोगिक विधा है,जिसका चलन आधुनिक सभ्यता की देन में नहीं छिपा है.बल्कि आधुनिक सभ्यता के विकास की परिस्थितियों के लिए कला ही उत्तरदायी है.कला केवल कुछ आकृतियॉ बनाकर उन्हें सहेजने को ही नहीं कहते हैं,बल्कि कुछ इस प्रकार कर्म किया जाये जिससे अन्य लोगों की मनोवृत्तियों पर उसका गहरा एवं सकारात्मक प्रभाव पड़ सके.कला आदमी के बोलने में भी प्रदर्शित होती है और सुनने की क्षमता के विस्तार में भी कला की अहम भूमिका होती है.कला के प्रयोग से खुद व दूसरों को प्रशन्न किया जा सकता है.इससे कला के परिष्कृत स्वरूप का बोध होता है.
व्यक्ति के व्यक्तित्व में विकास की क्षमता का अगर विस्तार करना है तो कला को जीवनोपयोगी बनाना होगा.यानी कला के द्वारा हम हम अपनी बात दूसरे को सहजता के साथ समझा सकते हैं.
संगीत भी एक प्रायोगिक विधा है.संगीत का महत्त्व आधुनिक समय में निर्विवाद रूप से स्थापित हो चुका है.शोध अभी भी संगीत पर चल रहे हैं.संगीत के माध्यम से हम मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकते हैं.संगीत मानव को एक अंतश्चेतना प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो सकती है.संगीत के माध्यम से मानसिक अवसाद को कम किया जा सकता है या यह भी कह सकते हैं कि संगीत का आभास जब मनुष्य के होता है तो मानसिक अवसाद का कष्ट स्वत: निष्क्रिय हो जाता है.संगीत से समाज के हर वर्ग को बिना भेद-भाव के लाभ पहुंच सकता है.
संगीत का आज का रूप शिष्ट जन में सुनाई देता है जबकि आदिम समाज में भी गीत गाये जाते थे.आज भी अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग त्योहारों में हर्षोल्लास के साथ गीत गाते हैं और प्रसन्न होकर अभिनंदन करते हैं.

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