बीमारी और दरिद्रता के दो पाटों के बीच में पिसते जनजीवन में महात्मा तुलसीदास की प्रासंगिकता

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The relevance of Mahatma Tulsidas in the life between the two layers of disease and poverty

अवधनामा संवाददाता

ललितपुर। (Lalitpur) वर्तमान वातावरण में महात्मा तुलसीदास की प्रासंगिकता पर आयोजित परिचर्चा के पहले ऐपीसोड में बोलते हुए नेहरू महाविद्यालय ललितपुर के पूर्व प्राचार्य प्रो. भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि महात्मा तुलसीदास अपने युग के सबसे बड़े लोकनायक थे। उनकी भक्ति समाज से सन्यास लेते हुए भी समाजसापेक्ष थी। उन्होंने अपने प्रख्यात ग्रन्थ कवितावली में रामचरितमानस के अत्यन्त मार्मिक प्रसंगों को कवित्त शैली में प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास के युग में आज की कोरोना महामारी से भी भयंकर दारुणदशा का चित्रण करते हुए दीन-हीन जनों के छिनते रोजगार और असमय में जीवन से हाथ धोने जैसी त्रासद स्थितियों से रूबरू किया है यथा एक तौ कराल कलिकाल सूल-मूल, तामें कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी। बेद-धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भए, साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीन की। दूबरे को दूसरो न द्वार, राम दयाधाम! रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की। लागैगी पै लाज बिराजमान बिरुदहि, महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी। अर्थात एक तो सारे दुखों का ऐसा भयंकर दुकाल और उसमें भी कोढ़ में खाज के समान मीन राशि पर शनिश्चर की स्थिति। वे कहते हैं कि वेद धर्म लुप्त हो गये हैं, लुटेरे ही राजा महाराजा बन गये हैं तथा बढ़ते हुए पाप की गति देखकर साधुसमाज दुखी है। वे दीनानाथ से विनय करते हैं कि हे दया के धाम भगवान राम कमजोर या दुर्बल जनों के लिए आपको छोड़ कोई दूसरा द्वार नहीं है। बल वैभवशून्य जनता के लिए सिर्फ एकमात्र आपकी ही गति है। उक्तानुसार महामारी से उत्पन्न दारुणदशा और उसके निदान हेतु जननायक गोस्वामी तुलसीदास जी के गीतों के मार्मिक स्थल क्रमश प्रस्तुत आगे भी किए जायेंगे जिनमें रोग को भगाने और जन-जन को जगाने हेतु सहृदय कवि ने अपनी मार्मिक अपील की है।

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