अधपके अन्नो से यज्ञ करना नवसस्येष्टि होलिकोत्सव कहलाता है: मुनि पुरुषोत्तम

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अजय श्रीवास्तव (अवधनामा संवाददाता)

महरौनी(ललितपुर) महर्षि दयानन्द सरस्वती योग संस्थान आर्य समाज महरौनी के तत्वाधान में वासन्तीय नवसस्येष्टि यज्ञ अर्थात होलिकोत्सव वैदिक रीति के साथ ठाकुर लोकेंद्र सिंह  मुख्य यजमान एवं मुनि पुरुषोत्तम वानप्रस्थ के पुरोहित में सम्पन्न हुआ।

मुनि पुरुषोत्तम वानप्रस्थ ने कहा कि होली  पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश हैं। किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती (माता निर्माता भवति) यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया। अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम होलिकोत्सव है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम नव सम्वतसर है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है– अग्निवै देवानाम मुखं अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।

आर्य मंत्री शिक्षक लखन लाल आर्य ने होली का अर्थ बताते हुए कहा कि जीवन मे जो ऊँची नीची बातें जो होली, सो होली यही है होली। अब उन्हें भूलकर नये सिरे से खुश होकर मिलकर जीओ। जो अत्यंत दुष्ट हो , मिलकर नहीं रहना चाहता हो , उसे छोड़ देवेँ। अर्थात चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे।

आयोजन में ठाकुर रूप सिंह शिक्षाविद,ठाकुर भानुप्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, रामसेवक निरंजन शिक्षक,लखन लाल आर्य शिक्षक,ठाकुर यशपाल सिंह,कृष्णकांत नायक,विवेकानंद प्रजापति शिक्षक, राजेन्द्र प्रजापति शिक्षक,सौरव सोनी शिक्षक,शिशुपाल सिंह,राजकुमारी सिंह,जयदेवी शुक्ला,रामप्रताप सिंह,पवन तिवारी,अदिति आर्या, संजू रिछारिया,ठाकुर दास नायक शिक्षक,अरविंद सेन आर्य आदि आर्यजन उपस्थित रहें। संचालन आर्य रत्न शिक्षक लखन लाल आर्य एवं आभार रामसेवक निरंजन शिक्षक ने किया।

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