103वाँ इजलास जलसा
- कौमी एकता की मिसाल हैं बाबा सदनशाह
- सभी जाति-धर्मों के लोग दरगाह पा टेकते है माथा।
- दरगाह पर हर फरियादी की मुराद होती है पूरी।
- आस्था का प्रतीक है बाबा सदन की दरगाह।
अवधनामा संवाददाता
ललितपुर। (Lalitpur) हिन्दु मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा सदनशाह की दरगाह पर सालाना पांच दिवसीय 103वाँ इजलास शुरू हो गया है। उर्स के सालाना जलसे की खास बात यह है कि यहाँ हर जाति धर्म का व्यक्ति आकर माथा टेकता है और बाबा के दरबार में अपनी हाजरी लगता है। पाकिस्तान में जन्मे बाबा सदनशाह की कर्मभूमि ललितपुर रही हैं। उन्होने मुगल सल्तनत के दौरान जब देश में चारों ओर साम्प्रदायिक हिंसा, धर्म और जाति को बांटने की कोशिश हो रही थी तब बाबा सदनशाह ने हिन्दु-मुस्लिम के बीच आपसी भाईचारा एवं सांम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने के लिये सूफी मत का प्रचार प्रसार किया। उनमें बचपन से ही अलौकिक क्षमतायें थीं। बताया जाता है कि उन्होने बचपन में ही पाक कुरान के सारी आयतों को कंठस्थ कर लिया था। बाबा के जीवन में एक ऐसा मोड आया कि उन्होने अपने जीवन को सूफी मत के लिये समर्पित कर दिया। नौ मणि बत्तीस खम्भ के नाम से विख्यात दरगाह का शिल्प वास्तुकला का बेजोड नमूना है। दरगाह की नौ मणियाँ चार चार खम्भों पर इस तरह से टिकी हुई है कि खम्भों की गणना बत्तीस होती है। जबकि यह गणना 36 होना चाहिये। यह वास्तुशिल्प की करामात है।
बाबा के जीवन का एक रोचक प्रसंग बताते हुये मनोज सक्सैना अध्यापक बताते है कि बाबा सदन का जन्म कसाई जाति में हुआ था। वे जाति से कसाई थे परन्तु फिर भी उनका हृदय दया और करूणा से परिपूर्ण था। वे अपने कसाई व्यापार में लिप्त थे परन्तु कभी स्वयं पशुबध नही करते थे हमेशा दूसरों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे। बाबा सदन का मन तो श्री हरि के चरणों में रम गया था वे हमेशा दिन रात हरि हरि नाम जप किया करते थे। भगवान अपने भक्त से दूर नही रहा करते अतः वे सदन के घर में शालिग्राम के रूप में विराजित थे। परन्तु सदन को इस बात का कोई आभास तक न था। वे तो उसे मात्र एक पत्थर का बाॅट समझते थे और उसी से सभी को मांस तौल कर बेचा करते और हरि नाम का जप करते रहते थे। एक दिन एक साधू की नजर शालिग्राम पर पडी तो उसे बडा क्लेश हुआ कि यह तो शालिग्राम का अपमान है। वे सदन से शालिग्राम ले गये। साधू बाबा अपनी कुटिया में पहुंचे जहाँ उन्होने शालिग्राम का विधिवत् पूजन किया, परन्तु भगवान को इसमें प्रसन्नता न हुई। यहाँ सदन भी शालिग्राम के ऐसे जाने से काफी दुखी और उदास हो गये। रात में भगवान ने साधू को स्वप्न दिया और कहा कि तुम मुझे सदन के घर में ही रखो, मुझे वहीं प्रसन्नता मिलती है। जब प्रातः साधू बाबा उठे तो उन्होने शालिग्राम को ले जाकर सदन को सौंप दिया। सदन को जब इस बात का पता चला कि उनका पत्थर का बाँट तो स्वंय भगवान शालिग्राम है तो उन्हे बडा पश्चाताप हुआ, उन्हे अपने व्यवसाय से घृणा हो गई। अपना व्यवसाय एवं घर द्वार सब त्याग कर वे शालिग्राम को लेकर पुरूषोत्तम नगरी श्री जगन्नाथपुरी को चल दिये। मार्ग मे संध्या के समय सदन एक गृहस्थ के घर में रूक ठहरे। उस घर की स्त्री का आचरण अच्छा नही था। वह अपने घर में ठहरे इस स्वस्थ, सुन्दर एवं आकर्षक व्यक्तित्व के पुरूष पर मोहित हो गई। यह सब देख कर वे हाथ जोड कर बोले- तुम तो मेरी माता हो। अपने बच्चे की परीक्षा मत लो माँ। मुझे तुम आशीर्वाद दो। उस स्त्री ने समझा के मेरे पति के भय से यह मेरी बात नही मान रहा। वह गई और अन्दर से तलवार लाकर उसने सोते हुये अपने पति का सर काट दिया और कहने लगी, प्यारे अब डरो मत, मैने अपने पति का सर काट डाला है और अब तुम मुझे स्वीकार करो। सदन भय से काँप उठे। जब उस स्त्री को समझ में आया कि वे उसकी बात नही मान रहे है तो उसने द्वारा पर आकर छाती पीट पीट कर रोना चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया। उसका रूदन सुन कर आस पडोस के लोग एकत्र हो गये। अब उस स्त्री ने कहना प्रारम्भ किया इस यात्री ने मेने पति को मार डाला है और यह मेरे साथ दुष्कर्म करना चाहता है। लोगों के मन में आक्रोष आ गया परन्तु सदन ने कोई सफाई नही दी। मामला न्यायाधीश के पास पहुंचा। सदन तो अपने प्रभु की लीला देख रहे थे। अतः अपराध न करने पर भी कोई प्रतिकार न करते हुये स्वीकार कर लिया। न्यायाधीश की आज्ञा से उनके दोनो हाथ काट दिये गये। सदन के हाथ कट गये रूधिर की धारा बहने लगी, इसे भी उन्होने अपने प्रमु की मर्जी मानते हुये स्वीकार कर लिया और उनके मन में तनिक भी रोष न आया। भगवन नाम का कीर्तन करते हुये सदन जगन्नाथपुरी की ओर आगे बढ गये। उधर भगवान ने जगन्नाथपुरी के प्रमुख पुजारी को स्वपन में कहा कि मेरा भक्त सदन आ रहा है, उसके हाथ कट गये है पालकी लेकर जाओ और आदरपूर्वक उसे लेकर आओ। पुजारी ने ऐसा ही किया। पलक झपकते सदन जगन्नाथपुरी पहुँच गये। उन्होने भगवान को दण्डवत प्रणाम करके कीर्तन के लिये जैसे अपनी भुजाओं को ऊपर उठाया उनके दोनो हाथ पूर्ववत् ठीक हो गये। प्रभु की कृपा से हाथ तो ठीक हो गये परन्तु उनके मन में शंका बनी रही कि आखिर वे कटे क्यों थे? रात में भगवान ने सदन के स्वप्न में आकर बताया कि तुम पूर्व जन्म में काषी में सदाचारी विद्वान ब्राहम्ण थे, एक दिन एक गाय कसाई के घेरे से भागी जा रही थी, परन्तु तुमने कसाई को जानते हुये भी गाय के गले में दोनो हाथ डाल कर उसे भागने से रोक लिया था। वहीं गाय वह स्त्री थी और कसाई उसका पति था। पूर्व जन्म का बदला लेने के लिये उसने अपने पति का गला काटा। तुमने भयातुर गाय को कसाई को सौंपा था इस पाप से तुम्हारे हाथ काटे गये। इस दण्ड से तुम्हारे पापों का नाष हो गया है।
बाबा सदनशाह ने भगवान् की कृपा का परिचय पाया। वे भगवत् प्रेम में विहल हो गये। बहुत काल तक नाम कीर्तन, गुणगान तथा भगवान के ध्यान में लीन रहते हुये। उन्होने पुरूषोत्तम क्षेत्र में निवास कर जगन्नाथ जी के चरणों में देह त्यागकर परमधाम प्राप्त किया।