वर्तमान में भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र एक जीवित तंत्र है, जिसमें सबको समान रूप से अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार मर्यादा में, शालीनता एवं शिष्टता से चलने की पूरी स्वतंत्रता होती है, लेकिन सत्ता एवं राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोगों द्वारा लोकतंत्र के आदर्शों को भूला दिया जाये तो लोकतंत्र कैसे जीवंत रह पायेगा? इनदिनों राजनीतिक खींचतान का जरूरत से ज्यादा बढ़ना और अदालत में पहुंचना लोकतंत्र के लिए दुखद ही नहीं, शर्मनाक भी है। राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में जो भी शीर्ष पर होते हैं वे आदर्शों को परिभाषित करते हैं तथा उस राह पर चलने के लिए उपदेश देते हैं। पर ऐसे व्यक्ति जब स्वयं कथनी-करनी की भिन्नता से लोकतांत्रिक मूल्यों के हाशिये से बाहर निकल आते हैं तब रोया जाए या हंसा जाए। लोग उन्हें नकार देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के राजनीतिक जीवन चरित्र के ग्राफ को समझने की शक्ति/दक्षता आज आम जनता में है। जो ऊपर नहीं बैठ सका वह आज अपेक्षाकृत ज्यादा प्रामाणिक है कि वह सही को सही और गलत को गलत देखने की दृष्टि रखता है, समझ रखता है। लेकिन प्रश्न है कि लोकतंत्र के सिपहसलाहकार में लोकतंत्र की रक्षा की चेतना कैसे और कब जगेगी?
आए दिन किसी-न-किसी राज्य से अप्रिय राजनीतिक घटनाक्रम सामने आता है, कर्नाटक विधानसभा में विधानसभा अध्यक्ष के साथ अभद्र एवं आशालीन व्यवहार होता है तो कहीं पश्चिम बंगाल सरकार बिना प्राथमिक जांच के भाजपा नेता के खिलाफ मामले दर्ज कर देती है तो कहीं दिल्ली में आम आदमी पार्टी को केंद्रीय गृह मंत्री और दिल्ली के उप-राज्यपाल के घर के आगे प्रदर्शन में पुलिस जबरन रोक देती है। भोले से भोला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि पश्चिम बंगाल एवं दिल्ली में सत्ताधारी दल कानून-व्यवस्था का दुरुपयोग कर रहा है। लोकतांत्रिक मूल्य राजनीतिक क्षेत्र में सिर का तिलक है और इनका हनन त्रासदी एवं विडम्बना का पर्याय होते जा रहे हंै।
राजनीतिक मकसद से विरोधियों या विपक्षियों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति हो या सत्ताधारी सरकारों के काम में विपक्ष द्वारा अनुचित एवं अलोकतांत्रिक तरीकों से अवरोध खडे करना- अब किसी एक राज्य की स्थिति नहीं है, हर तरफ संविधान की शपथ लेने वाली सरकारों को अनुच्छेदों का दुरुपयोग करते देखा जाता है तो विपक्षी दल सदन की कार्रवाही में अवरोध खड़े करते हंै, गाली-गलौचपूर्ण अशालीन प्रदर्शन करते हैं। कैसी विडम्बनापूर्ण स्थितियां बन रही है कि इन त्रासद घटनाओं का संज्ञान अदालतों को लेना पड़ रहा है। गत शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने जहां पश्चिम बंगाल सरकार से जवाब मांगा, वहीं दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस से। सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा के उन पांच नेताओं को राहत दी है, जिनके खिलाफ पश्चिम बंगाल सरकार बिना प्राथमिक जांच के मामले दर्ज किए जा रही थी। कोर्ट ने आदेश दिया है कि भाजपा नेताओं अर्जुन सिंह, कैलाश विजयवर्गीय, पवन सिंह, सौरव सिंह और मुकुल रॉय के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। अर्जुन सिंह का मामला तो खासतौर पर राजनीतिक भयादोहन की जीती जागती मिसाल है, जिसमें तृणमूल कांग्रेस छोड़ने के बाद बिना प्राथमिक जांच के ही अर्जुन सिंह के विरुद्ध पुलिस ने 64 मामले बना दिए हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में मामला के निर्णय के बाद राज्य सरकार अपनी सम्मान रक्षा, लोकतंत्र की मर्यादा और सुशासन के लिए ज्यादा सक्रिय होगी। दिल्ली पुलिस की खिंचाई जिस वजह से हुई है, वह वजह भी विचारणीय एवं नयी बन रही शासन-व्यवस्था पर गंभीर टिप्पणी है। आम आदमी पार्टी दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री और दिल्ली के उप-राज्यपाल के घर के आगे प्रदर्शन करना चाहती है। मामला भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले उत्तरी दिल्ली नगर निगम द्वारा धन की कथित हेराफेरी का है। लोकतंत्र के हिसाब से आप पार्टी को विरोध करने का हक है, पर दिल्ली पुलिस ऐसा करने नहीं दे रही। आप के कार्यकर्ता सीमित समय के लिए शांतिपूर्वक धरना एवं प्रदर्शन करना चाहते हैं, पर दिल्ली पुलिस ने 30 सितंबर से लागू दिल्ली आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के एक आदेश के तहत राष्ट्रीय राजधानी में सभी राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा रखा है। अब दिल्ली पुलिस को हाईकोर्ट में अपना जवाब दाखिल करना है। सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या किसी आदेश से शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन को रोका जा सकता है? कहीं स्वयं राजनीतिक प्रदर्शन करना और कहीं विरोधियों के प्रदर्शन को रोकना लोकतांत्रिक दृष्टि से आदर्श स्थिति कतई नहीं है।
जनमत का फलसफा यही है और जनमत का आदेश भी यही है कि चुने हुए प्रतिनिधि चाहे किसी भी दल के हो, लोकतंत्र की भावनाओं एवं मूल्यों को अधिमान दें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक सही अर्थों में लोकतंत्र का स्वरूप नहीं बनेगा तथा असंतोष किसी न किसी स्तर पर व्याप्त रहेगा। आज लोकतंत्र में बोलने की स्वतंत्रता का उपयोग गाली-गलौच एवं अतिश्योक्तिपूर्ण आरोप-प्रत्यारोप में हो रहा है, लिखने की स्वतंत्रता का उपयोग किसी के मर्मोद्घटान, व्यक्तिगत छिंटाकशी एवं आरोपों की वर्षा से किया जा रहा है। चिन्तन एवं आचरण की स्वतंत्रता ने जनप्रतिनिधियों को अपने लोकतांत्रिक मूल्यों, अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं नैतिक मूल्यों से दूर धकेल दिया है। पीड़ा, दुःख एवं चिन्ता का दुश्चक्र तो यह है कि अधिकांश नेताओं एवं जनप्रतिनिधियों को इस स्थिति का न तो भान है और न ही परवाह भी है। देश में लोकतंत्र कैसे मजबूत एवं संगठित होगा जब लोकतंत्र को संचालित करने एवं उसे जीवंतता देने का सामान्य व्यवहार भी नेताओं के पास नहीं है। शालीन ढंग से भी राजनीति हो सकती है और सभ्य-संवेदनशील तरीकों से सरकारें भी काम कर सकती हैं। संविधान में विरोध प्रदर्शन और उसकी सीमा स्पष्ट है। फिर क्यों लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संविधान का हनन जनप्रतिनिधियों द्वारा एक बार नहीं, बार-बार हो रहा है। ऐसी आवश्यकता है कि मंत्रियों, सांसदों, विधायकों सहित विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को लोकतंत्र का प्रशिक्षण मिले। यह आश्चर्य की बात है कि जब एक वकील, इंजीनियर, डाक्टर के लिये प्रशिक्षण अनिवार्य है तो जनप्रतिनिधियों के लिये प्रशिक्षण क्यों नहीं अनिवार्य किया जाता? लोकतंत्र में किसी को भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन से नहीं रोका जा सकता, अगर हम ऐसा करने लगेंगे, तो लोकतंत्र की एक बड़ी विशिष्टता का लोप हो जाएगा। लेकिन इसके लिये प्रशिक्षण एवं शालीन तौर-तरीकों की अपेक्षा है। हर नेता या हर पार्टी को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़े क्या यह लोकतंत्र के लिये उचित है? लोकतंत्र के मन्दिर की पवित्रता एवं जीवंतता इसी में है कि जनता को साथ लेकर ऐसे चला जाए कि जनता का शासन जनता के लिये हो, जिसमें सत्ता में रहते न कानूनों के दुरुपयोग की जरूरत पड़े और न विपक्ष में रहते कानून तोड़ने की। राजनीति में जब व्यक्ति राजनीतिक क्षेत्र में उतरता है तो उसके स्वीकृत दायित्व, स्वीकृत सिद्धांत व कार्यक्रम होते हैं, जिन्हें कि उसे क्रियान्वित करना होता है या यूं कहिए कि अपने कर्तृत्व के माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों को जीकर बताना होता है परन्तु इसका नितांत अभाव है। लोकतंत्र के रेगिस्तान में कहीं-कहीं नखलिस्तान की तरह कुछ ही प्रामाणिक राजनीतिक व्यक्ति दिखाई देते हैं जिनकी संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। सत्ता एवं पद के लिए होड़ लगी रहती है, व प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पद एवं सत्ता को येन-केन-प्रकारेण, लाॅबी बनाकर प्राप्त करना चाहते हैं। अरे पद तो क्राॅस है- जहां ईसा मसीह को टंगना पड़ता है। पद तो जहर का प्याला है, जिसे सुकरात को पीना पड़ता है। पद तो गोली है जिसे गांधी को सीने पर खानी होती है। पद तो फांसी का फन्दा है जिसे भगतसिंह को चूमना पड़ता है। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो लोकतांत्रिक मूल्यों का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो।
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(ललित गर्ग)
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