संतान की दीर्घायु, सुखी और निरोगी जीवन के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत रखा जाता है। यह व्रत हर वर्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रखा जाता है। सनातन संस्कृति में संतान की लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य की कामना के लिए जितिया व्रत की पुरातन परंपरा रही है।
बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रचलित इस जितिया पर्व में माताएं पूरी एक तिथि निर्जला उपवास रखकर जीमूतवाहन की आराधना करती है। इस व्रत की शुरुआत एक खास और अनोखी परंपरा से होती है, जो व्रत से एक दिन पहले निभाई जाती है। मंगलवार को निर्जला व्रत शुरू करने से पहले सोमवार को महिलाओं ने परंपरागत मान्यताओं के अनुसार मड़ुआ की रोटी और मछली का सेवन किया। हर व्रती को माछ-मड़ुआ उपलब्ध हो, इसलिए यह मान्यता है कि जो जितना बांटता है, उसके संतान की आयु में उतनी बढ़ोतरी होती है। मंगलवार सुबह सूर्योदय से पूर्व महिलाएं ओठगन (अल्पाहार) करके निर्जला व्रत की शुरूआत करेंगी।
इस संबंध में पंडित राजदेव पाण्डेय बताते हैं कि पुराने जमाने में खाने की इतनी वैरायटी नहीं होती थी। मड़ुआ की खेती बड़े पैमाने पर होती थी और बरसात के मौसम में मछली आसानी से मिल जाती थी। इसलिए यह व्रत इन पौराणिक मान्यताओं और उस समय की भोजन संबंधी परिस्थितियों से जुड़ा है। उनका कहना है कि हमारे हिंदू धर्म में व्रत से पूर्व संतुलित आहार को बहुत महत्व दिया गया है। जितिया व्रत से पूर्व महिलाओं के खानपान का पूरा ध्यान रखा जाता है। इस संतुलित आहार के कारण लंबी अवधि तक शरीर को ऊर्जा मिलती है और गैस जैसी परेशानी से निजात मिलती है। मडुआ हर कोई भर पेट खा सकता है। मधुमह के मरीज भी यह भोजन ले सकते हैं। यही कारण रहा कि यह सबके लिए अनिवार्य किया गया है। वैसे वैष्णव संप्रदाय की महिलाएं आज के दिन मछली के बदले नौनी साग बनाती हैं।
24 सितंबर मंगलवार की शाम 6:07 से अष्टमी का प्रवेश होगा जो बुधवार 25 सितंबर शाम 5:05 मिनट तक अष्टमी रहेगा। उसके बाद महिलाएं पारण कर सकती हैं। मिथिला पंचांग को मानने वाले 23 को माछ-मडुआ खाए। ओठगन तीन बजे सुबह कर लें। 24 सितंबर को व्रत करें और 25 को शाम 5:05 में पारण होगा।
मंगलवार अहले सुबह से महिलाएं 35 घंटे का निर्जला उपवास रखेंगी। मंगलवार को व्रती स्नान कर नव वस्त्र धारण करेंगी। इसके बाद भगवान जीमूतवाहन की पूजा करेंगी। इसके लिए कुश से बनी जीमूतवाहन की प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित करेंगी। इस व्रत में कहीं कहीं मिट्टी और गाय के गोबर से चील व सियारिन की मूर्ति बनाई जाती है। इनके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजा समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है।