‌    ‘  कब तक सतायी जाएंगी हव्वा की बेटियां ‘

0
75

आरिफ़ा मसूद अंबर मुरादाबाद

रीति रिवाज , रस्में , परंपराएं, यह सब हमारी खुशियों के लिए बनाए गए हैं।  लेकिन यही रस्में, यही रीति रिवाज, यही परंपराएं हमारे समाज के लिए कलंक बन गए हैं। दहेज भी ऐसी ही लानत है। खासतौर से गरीब लोगों के लिए यह नासूर बनती जा रही है,  जिसके दर्द जिसकी आहों से समाज कराह रहा है ,  जिसके कारण कितनी ही बेटियां सुपुर्द ए आतिश कर दी जाती हैं , तो कितनी ही हालात से परेशान होकर  ख़ुद ही अपने हाथों से अपनी जान लेने पर मजबूर हो जाती हैं। किसी का ज़माने में शोर हो जाता है तो कोई बड़ी खामोशी के साथ मौत को गले लगा कर हमेशा के लिए नींद के आगोश में सो जाती है। दहेज नाम की इस बीमारी ने आहिस्ता आहिस्ता पूरे समाज को अपनी गिरफ़्त में ले लिया है । आयशा मकरानी की आत्महत्या के बाद समाज में गहमागहमी तो हुई कई बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों ने इसके ख़िलाफ़ बयान  दिए । मीडिया को भी अपनी टी०आर ०पी ० बढ़ाने के लिए आयशा मकरानी की आत्महत्या का मुद्दा मिल गया। महीना दो महीना सब के ज़हनो  पर आयशा रहेगी फिर सब भूल जाएंगे और फिर एक नई आयशा इस लानत की भेंट चढ़ जाएगी। मुस्लिम समाज में दहेज़ का कोई अस्तित्व नहीं है। यह प्रथा हिंदू समाज से मुसलमानों में आई है । प्रथा किसी भी समाज की हो परंतु पीड़ा तो सभी को पहुंचा रही है ‌। अब प्रश्न यह उठता है कि इस कुरीति पर अंकुश किस प्रकार लगाया जाए। समाज के हर वर्ग में फैली इस कुरीति को खत्म करना इतना आसान नहीं है । परंतु नामुमकिन भी नहीं है। एक समय था जब इसी समाज में पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को उसी की चिता में जिंदा जला दिया जाता था । भारत में व्याप्त इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए अंग्रेज  वायसराय विलियम वेंकट 1829 में कानून बनाकर इस पर रोक लगा दी । लॉर्ड बेंटिक भारतीय समाज से तमाम बुराइयां खत्म करने के हिमायती थे, उन्होंने कन्या वध की कुप्रथा का भी अंत किया । तो फिर दहेज नामी कलंक को भारत के माथे से क्यों नहीं मिटाया जा सकता‌ ? ज़रूरत इस बात की है कि दहेज़ के खिलाफ सरकार न केवल कानून बनाए बल्कि इसे दूर करने के लिए इन का कड़ाई से पालन करें।  बात सिर्फ यहीं पूरी नहीं हो जाती कार्यवाही केवल उन लोगों के ख़िलाफ़ ना हो  जिन्होंने शादी के बाद है इसके लिए पत्नी को प्रताड़ित किया हो बल्कि उन लोगों पर भी कड़ी नज़र रखी जाए जो पूंजीपति लोग अपनी आन बान शान के लिए वर पक्ष और वधू पक्ष दोनों की सहमति से दहेज लेते और देते हैं।

हमारे समाज की दूसरी बड़ी आबादी मुसलमानों की है मुस्लिम समाज में भी आहिस्ता आहिस्ता कुछ लालची और बे ज़मीर लोग दहेज के लालच में आकर बहुओं पर ज़ुल्म कर रहे हैं,  हमारे वतन ए अज़ीज़ में तीन लाख से ज़्यादा मस्जिदों में नमाज़ होती हैं इन मस्जिदों के इमाम अगर सप्ताह में एक दिन यानी जुम्मे के दिन ही मान लीजिए अपने मोहल्ले समाज और गली के लोगों को यह बताएं कि देश की यह रस्म हमारे लिए कितनी नुक़सानदायक इसने हमारी बेटियों की खुशियों को अज़दहे की तरह ‌ निगल लिया है,  कई लड़कियां दहेज़ न मिलने की वजह से मार डाली जाती हैं , तो कईयों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ता है इन्हें बताया जाए कि हमारे मज़हब इस्लाम में दहेज लेना और देना दोनों ही ग़लत बताया गया है ।तो अवश्य ही समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लोगों को यह समझना होगा की लड़की पैदा करना कोई गुनाह नहीं है,  यह वही लड़की है जो मां बनकर तुम्हें इस दुनिया में लाती है , एक बहन बन कर आप पर अपनी मोहब्बतों  के ख़ज़ाने लुटाती है,  लेकिन वही लड़की जब आपकी बीवी बन कर आती है तो आप के लालच की हांडी में उबाल आने शुरू हो जाते हैं और बीवी के साथ जुल्मों सितम शुरू हो जाते हैं उनसे दहेज़ का मुतालबा किया जाता है और यह मुतालबा पूरा ना होने की सूरत में इन्हें इनके वालदैन के घर भेज दिया जाता है। आख़िर कब तक औरत पर यह ज़ुल्म होते रहेंगे ? आखिर कब तक औरत अपने आप को कमज़ोर समझती रहेगी? आख़िर कब तक सताई जाएंगी यह हव्वा की बेटियां?  औरत सिर्फ उस वक्त तक कमज़ोर रहती है जब तक वो खुद को कमज़ोर समझती है। औरत सिर्फ़ उस वक्त तक बेबस रहती है जब तक वह खुद को बेबस समझती है हया को अपनी कमज़ोरी नहीं बनने देना चाहिए नहीं तो समाज में यह नाइंसाफी बढ़ती ही रहेगी ,‌ सरकार चाहे जितने कानून बना ले आपकी मदद कोई दूसरा तभी कर सकता है जब आप अपनी मदद को ख़ुद तैयार होंगी हर मुश्किल हालात में ख़ुद को मज़बूत रखकर इन हालातों से लड़ेंगी और खुद के लिए नई नई राही चुनेंगी । और हक़ की इस लड़ाई में  जीत का परचम लहरायेगी। वरना हर रोज एक नई आयशा आत्महत्या को मजबूर होगी

 

Also read

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here