बीते हफ्ते स्वघोषित गौरक्षकों ने आगरा में कथित रूप से एक भैंस का वध करने के लिए छह लोगों के साथ फिर मारपीट की. और जैसा कि अब अक्सर देखा जाने लगा है, पुलिस इस मामले में भी अपराध में साझीदार दिखी जिसने आरोपितों को तो जाने दिया जबकि पीड़ितों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया. इस तरह की मिलीभगत सिर्फ यही सुनिश्चित करती है कि स्वघोषित गौरक्षकों की हिंसा बढ़े. यह ऐसे तत्वों द्वारा कानून अपने हाथ में लेने के बड़े चलन का भी हिस्सा है. एक दूसरी घटना में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल में 10 मुस्लिम परिवारों को गांव छोड़ना पड़ा. ऐसा यह खबर फैलने के बाद हुआ कि एक मुस्लिम युवक और हिंदू युवती भाग गए हैं जिसके बाद उत्तेजित भीड़ ने मुस्लिम समुदाय के लोगों के घरों पर हमले किए और पुलिस एक बार फिर मूकदर्शक बनी रही.
इस तरह की घटनाएं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कानून का राज सुनिश्चित करने वाले एक सख्त प्रशासक वाली छवि के लिए चुनौती हैं. इसके अलावा खुद कानून में भी सुधार की जरूरत है जो अभी तार्किक होने के बजाय बर्बर है. पशुवध के खिलाफ उत्तर प्रदेश में हो रही कार्रवाई बिहार में शराब पर लगे प्रतिबंध जैसी है. दोनों ही मामलों में सरकारें अपना एजेंडा लागू करने पर तुली हैं, बिना यह विचार किये कि उसकी आर्थिक कीमत क्या है या वह व्यावहारिक भी है या नहीं. जानकारों के मुताबिक पशु जब दूध देना बंद कर देता है तो उसे पालने पर रोज 60 रुपए का खर्च होता है. यह कीमत किसान की कमर तोड़ कर रख देगी और अगर सरकार इस खर्च को वहन करने का फैसला करती है तो सरकारी खजाने की भी.
इस मामले में सिर्फ इलाहाबाद हाई कोर्ट का रुख ही तार्किक रहा है जिसने बीते पखवाड़े कहा था कि आजीविका और खानपान का चुनाव लोगों का अधिकार है. पशुओं पर क्रूरता रोकनी है तो आदित्यनाथ को बूचड़खानों का नियमन करना चाहिए ताकि उनका आधुनिकीकरण हो और वे जानवरों को मारने की पीड़ाहीन तकनीकें अपना सकें. यह भी जरूरी है कि मुख्यमंत्री अब स्वघोषित गौरक्षकों से सख्ती के साथ निपटें. ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये और धार्मिक टकराव भड़क उठे