वैश्विक महामारी कोरोना और बेदी का अफ़साना “क़्वारंटीन”

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डॉ. शमशाद अली

अफ़साना निगार राजेन्द्र सिंह बेदी का अफ़साना “क़्वारन्टीन” आज के परिदृश्य में प्रासंगिक बन गया है।जब अफ़सानों का अध्ययन करने का ख़्याल दिल मे आया तो सबसे पहले नज़र बेदी के अफ़सानों पर पड़ी और हसरतों के उस वक़्त और पर लग गए जब उनके अफ़सानों में  एक अफ़साने (लघु कथा)का उनवान ही “क़्वारंटीन” था। बस फिर क्या था सब कुछ छोड़कर उसके मुताला (अध्ययन)में लग गया।जब  मुताला मुकम्मल हुआ तो पता चला कि आज फिर प्लेग की शक्ल में कोरोना ने अपने पांव पसार लिए हैं।पूरा आलम इस क़द्र ख़ौफ़ज़दा और सहमा सहमा सा है कि अपने को दुनिया का सुपर पावर समझनेवाला बेबस और लाचार नज़र आ रहा है।मौत के बेरहम हाथों ने उसके गिरेबान में हाथ डाल रखा है और सरकार को ये तक कहना पड़ गया कि हम मौतों के आंकड़े को एक से ढाई लाख तक भी रोक पाते हैं तो हमारी कामयाबी होगी। ये उसी भयावह और ख़ौफ़नाक मंज़र की तरफ़ इशारा कर रहा है जिसका ज़िक्र बीसवीं सदी के उर्दू के महान अफ़साना निगार (कहानीकार) और कहानी की दुनिया का एक बड़ा नाम राजेन्द्र सिंह बेदी ने अपने अफ़साने “क़्वारंटीन” में किया है कि जब प्लेग की वबा से लाशों के ढेर लग रहे थे।कोई दफ़न करने और जलाने वाला नही था।ढेरों पर पेट्रोल डालकर लाशों को नज़रे आतिश किया जा रहा था।प्लेग से ज़्यादा लोग क़्वारंटीन से मर रहे थे।हालांकि क़्वारंटीन कोई बीमारी नहीं है बल्कि उस हालत का नाम है जिसमे संक्रमित मरीज़ या संपर्क में आये शख़्स को चंद दिनों तन्हाई में रखा जाता है ताकि मर्ज़ और आगे न फ़ैले।ज़्यादातर क़्वारंटीन के ख़ौफ़ से मर रहे थे और कुछ दूसरों को मरते देख मरने से पहले ही मर गये।।शाम के ढलते हुए सूरज की लालिमा को देखकर सबको यही अहसास हो रहा था कि दुनिया को आग लग गयी है।अब जरासीम ने सबको अपनी गिरफ़्त में ले लिया है और क़्वारंटीन तो उन्हें दोज़ख़ की मानिंद लगने लगी और शायद यही वजह थी कि लोग बीमारी को छिपा रहे थे।आसार नज़र आने पर भी इलाज से परहेज़ कर रहे थे,क़्वारंटीन का ख़तरा जो था! जब किसी घर से शव निकलता तब पता चलता कि यह कुनबा वबा की ज़द में हैं। “हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कराना छोड़ दें,और ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें”। हिंदुस्तान के नामवर शायर प्रोफेसर वसीम बरेलवी के इस शे’र को अपनी ज़िंदगी मे ढालने की निहायत ज़रूरत आन पड़ी है।आज कोरोना का इलाज खोजे जाने में दस से बारह महीने का वक़्त लगने की बात की जा रही है ।ऐसे में हमे कुछ छिपाने के बजाए क़्वारंटीन से डरे बग़ैर अगर कोई आसार नजर आते हैं तो बड़ी बेबाकी और जाँ फशानी से आगे आकर मुल्क से इस वबा के ख़ात्मे के लिए अपना अहम किरदार अदा करना होगा।
इस वक़्त हमारा मुल्क नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है।दुनिया के विकसित देशों को देखते हुए जहाँ मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा,हमारी हालत अभी भी उतनी बदतर नही हुई है।इसलिए सुपर पावर सहित पूरी दुनिया उम्मीद भरी निगाहों से हिंदुस्तान की तरफ़ देख रही है।अब हमें हर हाल में संभलना होगा। क्या हम नहीं चाहते कि अल्लामा इक़बाल की उन पंक्तियों को हमेशा के लिए उसी शान से गुनगुनातें रहें कि, “यूनान ओ मिश्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से, अब तक मगर है बाक़ी नामो निशाँ हमारा”?क्या हम अब भी नहीं चाहते कि भारत विश्व गुरु और दुनिया का सरताज बना रहे? क्या हम इसकी आन बान और शान व अज़मत में चार चांद नही लगाना चाहते ?
आइये आपको ले चलते हैं “क़्वारंटीन”कहानी के किरदार भागू की ज़िंदगी की तरफ़ जो एक सफ़ाईकर्मी था मगर हमें बहुत कुछ सिखाने की सलाहियत रखता है।रात को तीन बजे उठकर लाशों को इकट्ठा करना,साफ़ सफ़ाई और क़्वारंटीन मरीज़ों की सेवा यही उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी थी ।बीवी के बीमार होने पर भी ये सिलसिला ज़ारी रहा और आख़िरकार वबा की ज़द में आकर उसकी बीवी हमेशा हमेशा के लिए भागू और अपने डेढ़ साल के मासूम बच्चे को तन्हा छोड़कर मौत के आगोश में समा गई।भागू अनपढ़ था फिर भी लोगों को साफ़ सफ़ाई और घरों से बाहर न निकलने की हिदायत दिया करता था, यहां तक कि डॉक्टर भी जब मरीज़ के क़रीब जाने से ख़ौफ़ खाते थे तब भागू ही वह शख़्स था जो उनके नज़दीक जाकर उनकी देखभाल किया करता था।बीवी के इंतक़ाल के बाद भी ये सिलसिला जारी रहा।
आज कोरोना का ख़ौफ़ मुल्क की शाहराहों और गुज़रगाहों पर इस क़द्र पसरा हुआ है कि सरकार को पूरे मुल्क में लॉकडाउन का बड़ा फ़ैसला लेना पड़ा और अब इसका दूसरा दौर भी शुरू हो गया है।चंद लोग इसकी पालना संजीदगी से नहीं कर रहे हैं और न ही इसकी गंभीरता को समझकर प्रशासन का पूरा सहयोग कर रहे हैं।आज ज़रूरत है हमें उस बात पर अमल करने की जब जंग-ए-आज़ादी के वक़्त आलमी शायर डॉ.अल्लामा इक़बाल ने हिंदुस्तानियों को मुख़ातिब होते हुए कहा था कि “वतन की फ़िक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है, तेरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में। न समझोगे  तो मिट जाओगे ऐ हिन्दुस्तां  वालों, तुम्हारी दास्ताँ तक न होगी दास्तानों में” अगर ऐसे ही हालात बने रहे तो फिर किसी भागू को मुर्दा कुत्तों की लाशों की तरह फिर से ढेर न लगाने पड़ जाएं।

प्रदेशाध्यक्ष
राजस्थान उर्दू टीचर्स एंड लेक्चरर्स एसोसिएशन
चूरू, राजस्थान

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