हर साल महिला दिवस होता है, कुछ भाषण, कुछ नारे होते है फिर सब एक साल के लिए दफन हो जाता है। राजनैतिक दल चाहे आधुनिक नजरिया वाला हो या पुराने नजरिया वाला आज तक 50 प्रतिशत का आरक्षण पंचायत, नगर पालिका, विधान सभा, लोक सभा में नही ला सके। जबकि हर दल कहता है हम औरतो के आजादी के लिए प्रतिबद्ध है। हमारे समाज में ढांग बहुत है हम सार्वजनिक रूप से जो कहते है निजी जीवन में ठीक उसका उल्टा चलते है। यह असली मुद्दो से मुंह चुराने का तरीका है। स्त्री विमर्श के नाम पर हम नारी को हर तरह की स्वतंत्रा देने की बात करते है और अभी तक उसी में उलझे हुए है। स्त्री विमर्श के बहाने वे सेक्स पर चटखारे लेकर बहसे करते है, चर्चाए करते है। स्वर्गीय साहित्यकार राजेन्द्र यादव का यह शगल था, उन्होने कुछ चेले चेलियाँ तैयार भी कर लिए थे। उनकी पत्रिका उनके जिन्दगी भर इसी में उलझी रही। उनके चेले अब मशाल जलाये हुए है।अभी तक स्त्री विमर्श दैहिक और सेक्स स्वंत्रता पर ही उलझी हुई है। जो बने बनाये फ्रेम में औरत फीट नही होती उसे कुल्टा औ चरित्रहीन की संज्ञा दी जाती है । अगर इसी पर अटके रहे तो इनसे अलग नही सोच पायेंगे और पुरानी सोच से पूरी तरह पीछा छुड़ा आगे नही बढ़ पायेगे जमाना तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। अब स्त्री विमर्श से पुरूष विमर्श पर आ जाना चाहिए तभी स्त्री विमर्श पर सार्थक सोच सामने आयेगी। आज औरते पुरूषो से टक्कर ले रही है तो वह उनके समक्ष हो गई है। अगर नारी सेक्स स्वतंत्रता अपना अधिकार मानती है तो उसे मानना पड़ेगा। वह न तो देवी है न तो पूज्य है। देवत्व और पूज्य होना निजी गुण है। वह व्यक्ति की सोच, अवधारणा, आचरण पर निर्भर करती है। यदि कोई संवेदनशील है, दूसरो की निस्वार्थ मदद करता है, दूसरो को तकलीफ नही देता है, बेइमानी नही करता तो वह देवत्व के लायक है और उसकी पूजा होगी। कहते है साहित्य समाज का दर्पण है, बड़ा या छोटा पर्दा इसे कटकर नही रह सकता। आज जो पर्दे पर दिखता है उसमे औरत अपनी महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाते दिखाया जाता है। इससे लगता है समाज में भारी बदलाव आ गया है नैतिकता का मानदण्ड बदल गया है। स्त्री मुक्ति का क्या मतलब होगा उसके दैहिक मुक्ति और सेक्स स्वच्छन्दता की क्या लेना देना है। सेक्स स्वच्छन्दता का कथित मूल्य या संस्कार से क्या लेना देना है। हमारे पुराने मूल्यो के विपरीत कृष्ण 16000 पटरानियां रखे थे, गोपीयो का नहाते समय कपड़े चुराते थे, नंगी देखते थे पर उन्हे भगवान मानकर पूजा जाता है। यह कैसा विरोधाभास है। इन्द्र ने गौतम की स्त्री को धोखे से भोगा पर सजा केवल अहिल्या को मिली। मेनका को भोग ऋषि विश्वामित्र ऋषि बने रहे सजा मेनका को मिली। असल में सारा झगड़ा स्त्री को बंधनो में बांधने का इन्ही से शुरू होता है। एक धोबी के कहने पर राम जैसे मर्यादा पुरूषोत्तम ने सीता को वनवास दे दिया। पर गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार कर आदर्श रखा पर सीता के बारी मे क्यों चूक गये। अहिल्या स्त्री की तरफ से स्त्री की भावना का इजहार नरेन्द्र कोहली के उपन्यास दिक्षा के माध्यम से इस तरह से किया है ‘‘हे राम मै अकेले जड़ नही हो गई थी। पूरा आर्यावर्त जड़ हो चुका है, तुम उनमें भी उसी तरह प्राण फूंको जैसे मुझमें फूका है। तुम सम्पूर्ण दलित वर्ग को प्राण दो, प्रतिष्ठा दो। सामाजिक मूल्यो से बंधा यह समाज न्याय अन्याय, नैतिकता अनैतिकता आदि के विचार प्रश्नो के संदर्भ में जड़ पत्थर हो चुका है‘‘। स्त्री विमर्श पर इससे आधुनिक और मौजू सोच क्या हो सकती है। हमने नारी को पूजा उपवास के नाम पर, रीति रिवाजो और मर्यादा के ऐसे घेरे में बांध दिया है कि वह अपने हर कुछ के लिए पुरूष के कंधो पर लटक जाती है। नारी को क्यो पूज्य माना जाए, उसे पूज्य बनाकर हमने अपना पूरा पूरूषत्व उसपर लाद दिया है। कहते है नारी पूज्य इस लिए है कि वह सृष्टि को आगे बढ़ाती है। पर क्या बिना पुरूष के वह ऐसा कर सकती है। हमे यह मानना पड़ेगा जो कमजोरियां पुरूषो में है वह स्त्री में भी है। कुदरत ने इसमें दोनो को बराबर बनाया है। शादी में कन्यादान किया जाता है कहा जाता ह ैअब इसके लालन पालन की जिम्मेदारी तुम्हारी है। यहीं से नारी की असली परतंत्रता शुरू होती है। पति के जिन्दा रहने पर पति पर वह उसके बाद पुत्र पर निर्भर हो जाती है। यानी हमेशा दूसरे की गुलामी ।एक वजह ये भी ध्यान देने की है कि स्त्री को कमजोर रक्षित दान की वस्तु मांगने के साथ-साथ उसके हितो की रक्षा के लिए युद्ध अनादिकाल से चलता आया है। पश्चिम समाज में स्त्री को चर्च देवी का दर्जा नही देता है हमारे यहां स्त्री अधिकारो के लिए लड़ने वालो में पुरूष आगे है पश्चिमी समाज में ऐसा नही है वहां स्त्रियां ही आगे है वही अपने अधिकारो को ले जा रही है।सेक्स मुक्ति का सचरित्रता से क्या लेना देना है पुरूष भी दूसरी औरतो से देह का रिश्ता रखता है तो दुश्चरित्र मान लिया जाता है। इन सबके जड़ में सेक्स को निची नजर से देखना है। हमारे समाज ने खासकर धार्मिक संतो ने सेक्स से परहेज रखने का ढोंग किया है। संतो की निजी जिन्दगी हमें देखने को मिल रही है कितने सीखचो के पीछे है यह हाल समाज का भी है वह सेक्स को लेकर दोहरी जिन्दगी जीते है जो ऊर्जा जीवन देती है वह गलत कैसे हो सकती है। कहते है खुदा पाने से बड़ा सुख कोई नही है, पर इसका तो किसी को अनुभव नही है पर इसके बाद अगर कोई बड़ा सुख है तो वह सेक्स है जिसका तजुर्बा सबको है। हमारे जनजातीय समाज मे बहुपत्नी रखने के तर्ज पर बहुपति रखने की प्रथा है और अनादिकाल से है। असम की गारो, खासी जनजाती में बहु पति प्रथा है। उत्तराखण्ड में जैनसार, भवर जनजाती में बहु पति प्रथा है। इसलिए निचोड़ निकालता है न कुछ अच्छा है न कुछ बुरा यह हमारे सोच पर निर्भर करता है। नही तो वही चीज एक जगह अच्छी और दूसरी जगह बुरी कैसे हो जायेगी। सेक्स को नीची नजर से देखने की वजह से सारी विकृतियां पैदा हुई है जो प्रचलन में है। इसलिए स्त्री को नीजि भोग का समान मान लिया जाता है। आज फिल्मो में, साहित्य में विज्ञापन में मॉडल के रूप् में, सौंदर्य प्रतियोगिता में नारी को माल की तरह परोसा जा रहा है। यह सच है उन्हें देह की स्वतंत्रा भी सेक्स की स्वतंत्रता के साथ मिलनी चाहिए पर इसे लेकर इसका शोषण हो रहा है वह जानबूझ कर इसे बढावा दे आर्थिक लाभ के लिए यह सब कर रही है। इससे वह फिर उसी स्थान पर पहुँच रही है जहां स्त्री उपभोग का समान ओर निजी सम्पत्ति है। नारी को इससे आगे बढ़ना होगा पुरूष को पुरूष विमर्श कर इसमें सहयोग देना होगा और देह और सेक्स स्वच्छन्दता से आगे बढ़ना होगा। पितृसत्तात्मक समाज के प्रति नूरा कुश्ती से आगे बढ़ना होगा काम करना होगा। सेक्स स्वतंत्रता और स्वच्छन्दता को छोड़ने का समय आ गया है इसी पर टिके रहे तो कभी भी इस घेरे को नही तोड़ सकेगे। स्त्री अपना पूरा जीवन अन्य होकर नही जीना चाहती इसके लिए उसे पितृसत्तात्मक मान्सिकता से निकलना होगा और पुरूष को भी निकलना होगा। सवाल औरत को व्यक्तित्व के स्वीकृति का है। कवित्री महादेवी वर्मा कहती है ‘‘हमे न तो किसी पर जय चाहिए न किसी से पराजय न किसी पर प्रभुत्व चाहिए न किसी पर प्रभुता के बल पर वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए जिनका पुरूषो के निकट कोई उपयोग नही है। परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी नही बन सकेंगी।‘‘चुंकि पुरूष स्त्री में कमजोरियां बराबर है इसलिए बराबरी संघर्ष को आज बांटने के लिए जरूरी है सब आडम्बरो को त्यागना होगा। न कोई देवता है न कोई देवी है। मनुष्य एक समान है न कोई बड़ा है न कोई छोटा है। स्त्री विमर्श के साहित्य को भी अब दीनता के साथ-साथ पुरूष को कोसने की प्रवृति छोड़ आगे बढना होगा। फिर भी ये कहना होगा ‘‘खुदा हुस्न की मासूमियत के कम कर दे, गुनाहगार नजर को हिजाब आता है‘‘।
मेनका को भोग ऋषि विश्वामित्र ऋषि बने रहे सजा मेनका को मिली-शैलेंद्र नाथ वर्मा
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