श्रीलंका में जो हुआ उसे कोई भी धर्म, कोई भी समुदाय और कोई भी इंसान क़ुबूल नहीं कर सकता क्योंकि ऐसी हैवानियत की उम्मीद तो हैवानों से भी नहीं की जाती जैसी हैवानियत इंसानों ने की, लेकिन अभी यह हादसा हुआ ही था, इसकी ख़बर आयी ही थी, मीडिया के चैनलों ने अभी अपने कैमरे घुमाये ही थे, मरने वालों की गिनती हो ही रही थी और ज़ख़्मी लोगों की जान बचाने का कोई इन्तेज़ाम करने के बजाये एक होड़ लग गयी कि सबसे पहले कौन इस हादसे का ज़िम्मेदार किसी मुस्लिम को क़रार देता है, कैसे किसी मुस्लिम तंज़ीम को इसकी ज़िम्मेदारी दिलवाता है और आख़िरकार उन्हें अपने मक़सद में कामयाबी मिल ही गयी।
श्रीलंका जैसा हादसा किसी भी क़ीमत पर क़ाबिले क़ुबूल नहीं है चाहे अभी न्यूज़ीलैंड में हुआ हादसा हो या फिर पुलवामा का और चाहे नक्सलवादियों की ऐसी घटनायें जिसमें न जाने कितने जवान और आम आफ़राद मरते ही रहते हैं लेकिन नक्सलवदियों की घटनाओं को कभी आतंकवाद से नहीं जोड़ा गया जबकि उसकी नौवियत भी बिल्कुल वैसी ही होती है जिसको आज मीडिया आतंकवाद कहती है, फिर क्या बात है कि आज पूरी दुनियां में कहीं भी कोई ऐसी घटना हो उसमें कोई न कोई मुस्लिम नाम और मुस्लिम तंज़ीम का नाम तलाश ही कर लिया जाता है, कहीं इसकी वजह यह तो नहीं कि हम पाकिस्तान, सीरिया और इराक़ में हर रोज़ ऐसे होने वाले हादसों पर तो ख़ामोश रहते हैं और हिन्दुस्तान में होने वाले ऐसे हादसों पर मुज़ाहरा करते हैं क्योंकि शायद यहां हमारी यह मजबूरी भी है। यह वजह हो न हो लेकिन कोई तो ऐसी वजह ज़रूर है जिसके चलते दुनियां में कोई भी कोई ऐसी घटना होती है तो उसमें झूठ या सच किसी न किसी फ़र्ज़ी ही सही मुस्लिम तंज़ीम का नाम आ ही जाता है ? अगर यही सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब मुसलमान शब्द आतंकवाद का पर्यावाची बन जायेगा।
मुसलमान शब्द कहीं आतंकवाद का पर्यावाची न बन जायें ?
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