मिश्रा जी, शुक्ला जी, गुप्ता जी, तिवारी जीं, यादव जी, मौर्या जी, श्रीवास्तव जी से दिल की गहराइयों से माजऱत

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मिश्रा जी, शुक्ला जी, गुप्ता जी, तिवारी जीं, यादव जी, मौर्या जी, श्रीवास्तव जी से दिल की गहराइयों से माजऱत
सैयद वकार रिज़वी
उन तमाम लोगों ने जिन्होंने मेरा लेख ”रोज़ा अफ़तार आज 4 बजेÓÓ पढ़ा और पूरा न पढऩे या अपनी बात सही तरह से वाज़ेह न करने की वजह से उन्हें ठेस लगी। उन सब से दिल की गहराईयों से मैं माजऱत चाहता हूं क्योंकि मेरा ही नहीं तमाम सेक्यूलर अफऱाद का यक़ीन है कि हमारे देश में धर्मपिरपेक्षता हमसे नहीं बल्कि तमाम इन्हीं मिश्रा जी, शुक्ला जी, गुप्ता जी, तिवारी जीं, यादव जी, मौर्या जी, श्रीवास्तव जी से बाक़ी है और मैं ख़ुद शाहिद हूं कि इसी अपने शहर में प्रोफ़ेसर रमेश दीक्षित, दाउ जी गुप्त, प्रोफ़ेसर रूप रेखा वर्मा, वंदना मिश्रा, प्रदीप कपूर, उत्कर्ष सिन्हा, संदीप पांडेय, हिमांशु बाजपेयी, राकेश जी जैसे तमाम अफऱाद न होते तो आज सेक्यूलेरिज़्म की लड़ाई कब की ख़त्म हो गयी होती।
अपनी कमइल्मी की वजह से मैने अभी तक रोज़ा अफ़तार का मतलब यही समझा और देखा कि जो दिनभर रोज़ा रखे उसके लिये रोज़ा अफ़तार है घर में ही हम हर रोज़ देखते हैं कि घर के 8 लोगों में से अगर 6 लोग रोज़ा हैं तो 6 कुर्सियों वाली डाईनिंग टेबिल पर उन 8 लोगों में से पहले उन 6 लोगों को मौक़ा मिलता है जो रोज़ेदार हैं बाक़ी सब शरीक हैं लेकिन इन 6 के रोज़ा खुलवाने के बाद क्योंकि यह 6 इस भरी गर्मी में 16 घंटे भूखे प्यासे होते हैं। इसमें उन 2 लोगों में किसी मिश्रा जी या शुक्ला जी का सवाल नहीं बल्कि वह सगे भाई बहन भी हो सकते हैं।
आज ही हफ़ीज़ नोमानी साहब ने हमारे मज़मून की ताईद में एक पचास साल पहले के वाक्य़े को नक़्ल करते हुये लिखा कि प्रदेश के तत्कालीन एक पार्टी के अध्यक्ष ने रोज़ा अफ़तार किया और उस रोज़ा अफ़तार में पार्टी के सभी मेम्बरों ने अपने अपने समर्थकों को बुला लिया। नतीजा यह हुआ कि जो लोग रोज़ा थे उन्हें एक गिलास शरबत क्या पानी और एक खजूर भी नसीब न हो सका। ऐसे रोज़ा अफ़तार का सर्मथन तो शायद आप भी न करें और हम भी ऐसे ही रोज़ा अफ़तार की मुक़ालेफ़त करते हैं। अगर रोज़ा अफ़तार हमारे कल्चर का हिस्सा है, मेल मिलाप की वजह है, भाई चारे का सबब है, गंगा जमुना तहज़ीब का प्रतीक है तो इस सेक्यूलर निज़ाम को क़ायम रखने के लिये सरकारी पैसा और सरकारी लोगों की क्या आवश्यकता।
हमनें ऐसे रोज़ा अफतार की मुक़ालेफ़त की जो सरकारी पैसे से किया जाता है और उसमें रोज़ेदार 5 और ग़ैर रोज़ेदार 95 होते हैं, हमनें ऐसे रोज़ा अफ़तार की मुक़ालेफ़त की जिसमें मज़हब के नाम पर हम अपने निजी संबधों को मज़बूत करनें के लिये सरकारी और सियासी लोगों को रोज़ेदारों पर तरजीह देते हैं हमनें ऐसे रोज़ाअफ़तार की मुक़ालेफ़त की जो अपने घर पर कभी एक खजूर भी नहीं खिलाते और दूसरों के माल पर या हुसैन कहते हैं। अगर आपको लगता है कि यह गंगा जमुना का प्रतीक है तो अपने घर पर बुलाईये वहां अपने साथ रोज़ा अफ़तार कराईये, कौन एतराज़ करेगा।
एपीजे. अब्दुल कलाम ने जब राष्ट्रपति भवन में रोज़ा अफ़तार करने से मना कर दिया तो किसी ने नहीं कहा कि इससे गंगा जमुनी तहज़ीब ख़त्म हो गयी, आपसी भाईचारे को ग्रहण लग गया, सेक्युलेरिज़्म का कोई नाम लेवा नहीं रहा, हिन्दु मुस्लिम एक दूसरे से दूर हो गये बल्कि सभी बुद्धजीवियों ने कहा कि सरकारी पैसे से रोज़ा अफ़तार ठीक नहीं। कलाम ने वह किया जो बहुत पहले करना चाहिये था। यह पैसा किसी एक कम्यूनिटी का नहीं बल्कि पूरी सवा अरब जनता का है और जब तक यह यक़ीन न हो जाये कि लाखों रूपये ग़ैर रोज़ेदारों पर चाहे वह हाफिज़ मोहम्मद ही क्यों न हों ख़र्च करने में रज़ामंदी सबकी है तब तक यह मुनासिब नहीं कि उस पैसे से रोज़ा अफ़तार किया जाये।
एक बार फिर मिश्रा जी, शुक्ला जी, गुप्ता जी, तिवारी जीं, यादव जी, मौर्या जी, श्रीवास्तव जी से दिल की गहराइयों से माजऱत कि उन्हें मेरे लेख का मंशा ठीक तरह से न समझ पाने की वजह से ठेस लगी।
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