बिहार में कायम महागठबंधन के जय और वीरू की जोड़ी एक बार फिर चौराहे पर खड़ी

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बिहार में कायम महागठबंधन के जय और वीरू की जोड़ी एक बार फिर चौराहे पर खड़ी है. उनके सामने कई विकल्प हैं. वे चाहें तो कोई भी रास्ता पकड़ सकते हैं. अलग-अलग राह चुन सकते हैं लेकिन सवाल ये है कि क्या लालू और नीतीश एक ही रास्ते पर साथ-साथ चलते रहेंगे या…?


बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में कांग्रेस को साथ लेकर बीजेपी को मात देने के बाद ऐसा लग रहा था कि नीतीश और लालू की जोड़ी अब फेविकोल के जोड़ की मानिंद चिपक गई है. लेकिन मौजूदा हालात में यह चाय में डूबे बिस्कुट की तरह हो गई है. अब टूटी की अब टूटी.. विश्वास और भरोसे के बिना गाड़ी चल रही है. लालू और नीतीश की दोस्ती का सिरा 1970 से जाकर जुड़ता है, जब संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान जब दोनों एक साझा दुश्मन के खिलाफ लड़ रहे थे.
2015 के विधानसभा चुनाव में भी जब दोनों अरसे बाद साथ आए तो भी दोनों के सामने एक ही दुश्मन था… लेकिन आज लालू जिसके खिलाफ लड़ने की बात कर रहे हैं वो नीतीश का दोस्त नहीं है, तो दुश्मन भी नहीं है. और अपनी सियासी चालों से नीतीश ने ये साबित कर दिया है. अब ये समय ही बताएगा कि नीतीश लालू के साथ बने रहेंगे या फिर एनडीए के पाले में चले जाएंगे. आइए जानते हैं कब-कब रही लालू-नीतीश में दोस्ती… और कब खिंच गई दोनों के बीच लक्ष्मण रेखा…
1. लालू और नीतीश पहली बार जयप्रकाश नारायण के सोशलिस्ट आंदोलन के दौरान साथ आए. ये समय का तकाजा था कि दोनों को एक ही दुश्मन के खिलाफ लड़ना था. आज से तकरीबन चालीस साल पहले लालू और नीतीश ने हाथ मिलाया था. उस दौरान भी लालू की लड़ाई हिंदुत्व की विचारधारा से थी और इनके मुकाबले अपनी ताकत बनाए रखने के लिए लालू नीतीश कुमार जैसे सोशलिस्ट नेता को अपने साथ रखना चाहते थे. इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश का आंदोलन दिल्ली में सत्ता परिवर्तन लाने में कामयाब रहा. ये युवा नेता रूप में नीतीश और लालू की भी सफलता थी. दोनों की सियासत अब पटरी पर थी.
2. 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल को जीत मिली. मुख्यमंत्री पद की रेस में नीतीश कुमार ने लालू की पूरी मदद की और लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने.
3. दो साल बाद ही नीतीश और लालू के बीच मतभेद उत्पन्न होने लगे. कथित तौर पर नौकरियों में एक जाति को प्राथमिकता देने और ट्रांसफर-पोस्टिंग में भ्रष्टाचार की वजह से नीतीश कुमार मौजूदा राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू से नाराज थे.
4. 1994 में नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाकर लालू से अलग राह चुन ली. लेकिन विधानसभा चुनाव में नीतीश को केवल सात सीटें मिली, जबकि लालू दूसरी बार विधानसभा चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बने.
5. 1996 में लालू की सियासी जिंदगी में भूचाल आया. पटना हाईकोर्ट ने चारा घोटाले में सीबीआई जांच के आदेश दिए और लालू को जेल जाना पड़ा. कहा जाता है कि मामले में जांच के लिए दाखिल याचिका के पीछे नीतीश कुमार का बड़ा हाथ था. लेकिन लालू ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पकड़ ढीली नहीं होने दी. अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा जेल चले गए. और अगले विधानसभा चुनाव में भी बाजी मार ले गए.
6. इसके बाद नीतीश ने बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया. एनडीए की सरकार में बतौर मंत्री कुछ दिन दिल्ली में रहे और फिर बिहार लौटे. नीतीश और बीजेपी ने लालू के खिलाफ 2005 के विधानसभा चुनाव में हाथ मिलाया और 15 साल के लालू युग वाली लालटेन की बत्ती बुझा दी.
7. नीतीश कुमार ने जून 2013 में बीजेपी के साथ नाता तोड़ लिया लेकिन उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश को केवल दो सीटें मिली, जबकि लालू को चार सीटें मिलीं. इन दोनों को पछाड़ते हुए बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने 31 सीटों पर कब्जा जमाया.
8. एक महीने बाद नीतीश कुमार राज्यसभा चुनाव में समर्थन के लिए लालू के पास पहुंचे. 20 साल बाद दोनों नेता गले मिले और फिर महागठबंधन की नींव पड़ी. कांग्रेस भी साथ आई और 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को करारी मात झेलनी पड़ी. उस समय लालू को नीतीश की जरूरत थी और नीतीश को उनकी.
लेकिन अब स्थिति पेचीदा हो गई है.. दिल्ली की सियासत में काफी उलटफेर हो चुका है. लालू और उनका परिवार भ्रष्टाचार, बेनामी संपत्ति के आरोप में घिरे हुए हैं. नीतीश पर बीजेपी का दबाव बढ़ता जा रहा है, उन्हें एनडीए में आने का न्यौता मिल रहा है. महागठबंधन का जोड़ कमजोर पड़ रहा है. देखना ये है कि नीतीश और लालू में से कौन पहले दूसरे का हाथ छोड़ता है.


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