वाकार रिज़वी
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लगता है सुप्रीम कोर्ट के फ़ै सले ने कुछ लोगों की दुकान हमेशा हमेशा के लिये बंद कर दी क्योंकि बाबरी मस्जिद भले ही न बची हो लेकिन उसने अपने बचाने वालों को ज़मीन से अर्श तक का सफऱ तय करा दिया। इसलिये भी कुछ लोगों को मज़ा नहीं आया कि इस फ़ै सले के बाद न तो ख़ूंरेज़ी हुई, न कशीदगी बढ़ी बल्कि ऐसा लगा कि शायद कुछ दूरियां ही कम हो गयी क्योंकि यह सही है कि यह इंसा$फ नहीं था लेकिन दानिश्वराना फ़ै सला ज़रूर था जो तमाम जज साहेबान नें अपने उपर तोहमत लेकर देश को बचा लिया वहीं मुसलमानों को सभी इल्ज़ामों से बरी कर दिया और मूर्तिया रखने वाले और मस्जिद को तोडऩे वालों की न सिफऱ् मज़म्मत की बल्कि उसे ग़ैरक़ानूनी भी कऱार दिया और मुसलमानों को इस देश में सर उठा कर जीने की राह फ ऱाहम कर दी, अब कोई मुसलमानों को बाबर की औलाद नहीं कहेगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने वाज़ेह कर दिया कि मंदिर तोड़कर यह मस्जिद नहीं बनायी गयी और यह भी तसलीम किया कि ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से मूर्तियां रखने से पहले तक यहां मुसलसल नमाज़ हो रही थी फि र 2.77 एकड़ ज़मीन के मुक़दमें में आपको आपकी मनचाही उसकी दुगनी ज़मीन देकर क्या अदालत ने यह तसलीम नहीं किया कि मौजूदा सुरते हाल में जो आप इंसा$फ मांग रहे हैं वह किसी भी हाल में क़तअन मुमकिन नहीं था, अगर दे दिया जाता तो क्या उसका नाफि़ ज होना मुमकिन था? जो आप इंसाफ़ चाहते हैं अगर वह इंसाफ़ हो जाता तो क्या 1992 में जो मुम्बई में हुआ, पूरे देश में न होता, इसकी कौन ज़मानत लेता?
होना तो यह चाहिये था कि इस फ़ै सले का सभी फ ़रिक़ैन ख़ैरमक़दम करते और इसी $फैसले को नज़ीर बनाकर सुप्रीम कोर्ट से मांग करते कि जब आपने 1992 में मस्जिद का गिराना ग़ैरक़ानूनी तसलीम कर लिया है तो 27 साल से चल रहे इस मुक़दमें को भी इसी तरह लगातार चालीस दिन सुनवाई करके सज़ावारों को सज़ा सुनाई जाये, लेकिन एक ऐसी शरियत जो गले से नीचे उतरती ही नहीं, इसके चलते हमनें कई मौक़े खो दिये, जब शाहबानों में उलझे तो मंदिर का शिलान्यास करा बैठे, जब तीन तलाक़ का मसला ख़ुद हल न कर पाये तो शरियत के खि़ला$फ बने क़ानून को मानने पर मजबूर हो गये फि र एक मौक़ा मिला कि मसालेहत से बातचीत से बाबरी मस्जिद का मसला हल कर लें तो मस्जिद को ही शहीद करा बैठे और जब फि र एक मौक़ा आया कि कोर्ट ने वह फै़सला दिया जिससे आपकी भी नाक उंची रहे और देश में अमन चैन भी क़ायम रहे तो फि र आप शरियत का नाम लेकर अड़ गये, अल्लाह ख़ैर करे! अब आप क्या चाहते हैं यह सिफऱ् आप ही जानते हैं लेकिन एक सवाल यह है कि बाबारी मस्जिद के लिये कोई अलग शरियत है और पंजाब और दिल्ली की तमाम मस्जिदों के लिये कोई अलग शरियत। क्योंकि किसको पता कि पंजाब और दिल्ली की तमाम मस्जिदें अब भी वैसे ही बाक़ी है जैसी तक़सीम से पहले थी या उनका वजूद ख़त्म हो गया या जो हैं वह किस हाल में? किसी ने जानने की कोशिश की? कि उनका क्या हाल है? उन मस्जिदों में नमाज़ अदा होती है या जानवर बांधे जाते हैं या वह उस रिहाईशगाह में तबदील हो गयी हैं जिसमें टायलेट कहीं भी हो सकता है, अगर ऐसा है तो फिर तो शरीयत पर सवाल उठना लाज़मी है कि जहां नामो नुमूद है, पैसा है, शोहरत है, टी.वी. और अख़बारों की सुखिऱ्यां आपकी पहचान हैं वहां के लिये शरीयत कुछ और और जहां यह सब कुछ नहीं सिफऱ् मस्जिद का सवाल है वहां के लिये कुछ और?
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