(8 मोहर्रम) कर्बला इंसानसाज़ी की दर्सगाह
Waqar Rizvi
क़ा$िफले हुसैनी का स$फर मदीने से लेकर मदीने की वापसी तक बग़ैर जि़क्रे अब्बास के अधूरा है क्योंकि कर्बला को अगर दो लव्ज़ों में समेटा जाये तो वह दो लव्ज़ सब्र और शुजआत कऱार पायेंगें। यह भी एक हक़ीक़त है कि इन दो सि$फाअत का किसी एक शख़्स में पाया जाना मुश्किल है। बाज़ू में ज़ोर रखने वाला इंसान दूसरों की सख़्ितयों पर सब्र नहीं कर पाता लेकिन हजऱत अली की शखि़्सयत इन दोनो मुताज़ात सि$फाअत का मरकज़ नजऱ आती है कि 25 साल ज़ोरे बाज़ू दिखाया तो ला$फताह की सनद मिली और सुकूत और सब्र का जो मुज़ाहरा किया तो महसूस हुआ अली से बड़ा कोई साबिर नहीं, यही सि$फाअत अली से बैएैन ही अब्बास में मुनतकि़ल हो गये। जिसका इज़हार कर्बला में अब्बास ने इस अंन्दाज़ से किया कि तफ़सीरे कर्बला की तकमील जि़क्र अब्बास के बग़ैर अधूरी हो गयी।
हमारे उलेमा और ज़ाकिरीन ने आज का दिन ख़ासतौर से अब्बास के नाम से मनसूब किया है ताकि हर शख़्स अपनी बसीरत के मुताबिक़ समझकर हजऱत अब्बास की सि$फाअत से दर्स ओ सबक़ हासिल कर सके।
शुजाअत जिन आम माना में समझी जाती है कर्बला में उसके जौहर दिखाने का मौक़ा अब्बास को नहीं मिला क्योंकि इमाम हुसैन ख़ूब जानते थे कि अगर हजऱते अब्बास को तलवार के ज़रिये शुजाअत दिखाने की इजाज़त दे दी तो कर्बला की तारीख़ ही बदल जायेगी फिर जैसे तमाम जंगे हज़ारों गर्दने क़लम करके जीती गयी उन्हीं जंगों में से एक जंग कर्बला भी तरीख़ के अवराक़ पर दर्ज हो जायेगी।
यह कमाले अब्बास था कि आपने जंग किये बग़ैर शुजआत का माना बदल दिये और बादे कर्बला जब भी शुजाअत और बहादुरी का तसकिरा आता है तो हजऱात अब्बास का ही नाम ज़हन में सबसे पहले उभर कर आता है।
हजऱत अब्बास की शुजाअत के बारे में कोई क्या जान सकेगा ? सबसे पहले जो आसानी से समझ में आ सकता हैं कि हजऱत अली जैसे शुजा ने एक तमन्ना अपने भाई अक़ील से की कि उनका अक़्द एक ऐसे शुजा क़बीले में कराये जिससे एक शुजा बेटा पैदा हो जो कर्बला में मेरी नियाबत करे, इसकी एक बहुत छोटी से झलक हजऱते अब्बास ने अपने बचपन में ही सि$फ$फीन की जंग में दिखा दी थी लेकिन उनकी शुजआत क्या थी इसका दर्स हमें कर्बला से मिलता है जब इमाम हुसैन ने अपने सारे अज़ीज़ अकऱबा, दोस्त, अहबाब, भान्जें, भतीजे यहां तक बेटे के क़त्ल हो जाने के बाद भी हजऱते अब्बास को जंग की इजाज़त नहीं दी जबकि वह जानते थे कि हजऱते अब्बास कई दिन के भूखे प्यासे हैं, दिन भर लाशे पर लाशे उठा चुके हैं पूरा जिस्म जख़़्मी है उसके बावजूद जब हजऱते अब्बास सबसे आखिऱ में एकबार फिर जंग की इजाज़त मांगने आये तो इमाम हुसैन ने साफ़ इंकार कर दिया, बहुत इसरार करने पर बस इतना कहा कि अब्बास अगर जाना ही चाहते हो तो पहले कई दिन के इन प्यासे बच्चों के लिये पानी की कोई सबील कर दो लेकिन देखो तलवार लेकर मत जाना। ऐसी हालत में भी तलवार न ले जाने की हिदायत ने हजऱत अब्बास की शुजआत का अंदाज़ा साहबे अक़्लों $फहम बख़ूबी लगा सकते हैं हम तो बस इतना समझ सके कि इस हालत में भी इमाम हुसैन को यक़ीन था कि यज़ीद का लश्कर हजऱत अब्बास की तलवार के आगे ठहर न सकेगा, और $िफर जो कर्बला की तारीख़ हम लिखना चाहते हैं वह न लिखी जा सकेगी। हुआ भी ऐसा ही जब हजऱत अब्बास बिना तलवार के मक़तल में गये तो यज़ीदी फ़ौजों में भगदड़ मच गयी, हजऱत अब्बास ने फ़ुरात पर क़ब्ज़ा कर लिया फिर मश्क को पानी से भरा। आप आज सुनेंगें कि जब हजऱत अब्बास ख़ेमें के जानिब वापस आने लगे तो किस तरह छिप कर धोखे से उनके हाथों को क़लम कर दिया गया। यही यज़ीदी $फौजें थी जब इन्होंने 4 मोहर्रम को दरिया के किनारे से इमाम हुसैन के ख़ैमों को हटाने को कहा तो हुसैन का यह शेर अब्बास बिफर गया, यज़ीद का लश्कर कांप गया था और जब उन्होंने तलवार की नोंक से ज़मीन पर एक लकीर ख़ींची और यज़ीद की फ़ौज से कहा कि जब तक मैं वापस न आ जाऊं कोई इसके कऱीब भी न आये, दुश्मन $फौज अब्बास के ग़ैज़ का ताब न ला सकी और जहां थी वहीं ठहर गयी। लेकिन अब्बास ने भाई हुसैन और बहन ज़ैनब की मजऱ्ी के तहत तलावर ज़ानू पर रखी और दो टुकड़े कर उसे बहन की क़दमों में डाल दिया, और इसी के साथ हजऱते अब्बास ने शुजाअत की मायने बदल दिये अभी तक शुजाअत उसे कहते थे जो जंग में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों पर ग़ालिब आ जाये, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के सर क़लम कर ले, लेकिन अब्बास ने बताया कि अस्ल शुजाअत ज़ोरे बाज़ू नहीं बल्कि ज़ोरे नफ़्स है जोश को होश पर ग़ालिब आना शुजाअत नहीं बल्कि इताअत के आगे अपनी ताक़त पर क़ाबू रखना अस्ल शुजाअत है।
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