इंसान को बेदार तो हो लेने दो, हर क़ौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन

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(9 मोहर्रम) कर्बला इंसानसाज़ी की दर्सगाह
Waqar Rizvi
1400 सालों से हम कर्बला का मुसलसल जि़क्र कर रहे हैं हज़ारों ज़ाकिरीन अपनी बसीरतअ$फरोज़ तकऱीर से हमें हर रोज़ महज़ूज़ करते हैं लेकिन क्या जैसे हमें बेदार होना चाहिये था हम बेदार हो गये, जिन्हें बेदार होना चाहिये था वह तो अभी तक बेदार नहीं हुये दूसरी तरफ़ जिनसे तवक़ो नहीं थी उन्होंनें आज़ादी की जंग $फतेह कर ली। आज़ादी की जंग लड़ते हुये पंडित जवाहर लाल नेहरू का यह कहना कि हमने इमाम हुसैन के नक्शे क़दम पर चलकर ही जंगे आज़ादी लड़ी और जीती क्योंकि यह सबक़ सिफऱ् इमाम हुसैन से ही मिलता है कि अपना सबकुछ कुछ क़ुरबान करके भी ज़ालिम के सामने सर नहीं झुकाना चाहिये।
महात्मा गांधी ने भी यही कहा कि जब मैने कर्बला की दर्दअंगेज़ घटना का अध्यन किया तो हमें विश्वास हो गया कि अगर हिन्दोंस्तान को आज़ादी मिल सकती है तो हमें हुसैनी सिद्धान्तो पर चलना होगा। एक तरफ़ जे0बी.खेर जो मुसलमान नहीं है वह कह रहे हैं कि इमाम हुसैन मुसलमानों के ही नहीं हम हिन्दुओं के भी रहनुमां हैं, हिन्दु और मुसलमानों उनके नक्शे क़दम पर अगर चले तो ज़ुल्म के खि़लाफ़ लड़ सकते हैं, दूसरी तरफ़ मुसलमानों की हुकूमतें फिलिस्तीन पर हो रहे ज़ुल्म के खि़लाफ़ ख़ामोश हैं जबकि मुंशी प्रेमचन्द्र कहते हैं कि कर्बला की जंग हमेशा याद की जाती रहेगी, यज़ीद जीतकर भी हारा और क़त्ल होकर भी करोड़ो दिलों पर आज हुसैन की हुकूमत है। स्वामी शंकराचार्य का यह कहना कि उन मुसलमानों को शर्मिन्दा करने के लिये काफ़ी है जो इमाम हुसैन की अज़मत कम करने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं कि ”यह इमाम हुसैन की क़ुरबानी का ही नतीजा है कि आज इस्लाम बाक़ी है, नहीं तो इस दुनियंा में इस्लाम का नाम लेने वाला कोई नहीं होता।ÓÓ ग़ैर मुस्लिम डा0 राजेन्द्र प्रसाद तो यह कहते हैं कि इमाम हुसैन का बलिदान एक देश या राष्ट्र तक सीमित नहीं बल्कि यह समस्त मानव जाति के लिये भाई चारे का संदेश है या फिर डा0 राधाकृष्णन का यह कथन कि इमाम हुसैन ने हमें बताया कि हक़ और सदाक़त के लिये सबकुछ लुटाया जा सकता है। मगर तमाम मुसलमानों में से चन्द मुसलमान जो तमाम मुसलमानों पर ग़ालिब है क्योंकि इक़तेदार, ताक़त और दौलत इन्हीं के पास है वह नहीं चाहते कि इमाम हुसैन की याद बाक़ी रहे क्योंकि कर्बला का वाक़ेया ही दुनियां की तारीख़ का वाहिद वाक़ेया है जहां एक इंकार ने ज़ालिम हुकूमत का नामो निशान मिटा दिया जो ज़ुल्म के खि़लाफ़ था जो इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैयत को ठुकरा कर किया था। कर्बला की जंग इसकी यक़ीनदहानी कराती है कि कम तादाद अपने मक़सद को पाने में रूकावट नहीं हैं, दूसरों के गले काटकर नहीं बल्कि अपने गले कटा कर भी कोई जंग जीती जा सकती है, बस इसके लिये हक़ पर होना लाज़मी है। मुक़ालि$फ ताक़तों नें पहले सुन्नी और शियों में इक़तेलाफ़ के बीज बोये, इससे पूरा मक़सद हासिल नहीं हुआ तो सुन्नियों में ही इतने इक़तेलाफ़ पैदा कर दिये कि सुन्नियों को शियों से लडऩे की ज़रूरत नहीं रह गयी। दूसरी तरफ़ शिया हैं मगर किसके? यह नहीं मालूम क्योंकि यह बड़ा मनसब है हां हम यह ज़रूर दावा कर सकते हैं हम मोहिबब्बनाने हुसैन हैं, हम आशिक़ाने हुसैन हैं। शियाने अली का दावा तो सलमान, और क़म्बर जैसों को ही ज़ेब देता है।
मैनें जिन ग़ैर मुस्लिमों की तमाम कोटेशन आपके सामने पेश की वह सब के सब तकऱीबन 70 साले पहले के हैं जब सोशल मीडिया नहीं था, अख़बारात इस कसीर तादाद में नहीं थे, टी. वी. पर सदाए- करबला और पैग़ाम-ए-करबला जैसे प्रोग्राम नहीं आते थे, न अपने पास हुसैनी चैनल था और न विन और न हादी चैनल। फिर भी तमाम ग़ैर शिया और आलमे इस्लाम के तकऱीबन सभी अ$फराद मोहर्रम में इमाम हुसैन की अज़मत उनकी क़ुरबानी की याद अपने अपने ग़ैर मामूली तरीक़े से मनाते थे, तब न इनके मोहर्रम के खि़लाफ़ कसीर तादाद में $फतावे थे और न ग़ैरमुस्लिमों की इमाम हुसैन के बारे में इतनी ग़ैरशिनासी कि वह दस मोहर्रम को अपने एजूकेशन इंस्टीटयूशन खोलने की बात कहें।
होना तो यह चाहिये था कि आज हर कोई इमाम हुसैन से आशना होता, कर्बला का वाक़ेआ उसकी नजऱो में होता जब भी कहीं ज़ुल्म होता तो इमाम हुसैन को अपना आयडियल बनाता और ज़ालिम मोहर्रम आते ही कांप जाता, क्योंकि आज अलहमदो लिल्लाह हमारे ज़ाकिरीन के पास वह सब कुछ है जो उस वक़्त के ज़ाकिरीन को मयस्सर नहीं था आज उनके पास टी.वी. चैनल ही नहीं हर वह जदीद टैक्नालोजी मौजूद है जिससे वह पैग़ामे-ए-करबला हर एक तक पहुंचा सकते हैं, अब दुनियां बहुत छोटी हो चुकी है, एक ज़ाकिर सुबह यूरोप होता है तो शाम को लन्दन में तो अगले दिन दुबई तो चार घंटे के बाद हिन्दोंस्तान, यानि वह पूरी दुनियां के चप्पे चप्पे में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं और उनके चाहने वाले उनकी हर तकऱीर को यूटयूब, $फेसबुक, व्हाटसअप और न जाने कहां कहां, लेकिन इमाम हुसैन का पैग़ाम हम कहां तक पहुंचा सके हैं? यह आप हमसे बेहतर जानते हैं। एक वक़्त था कि दिल्ली के वी.डी़ मिश्रा जैसे लोग जो न मजलिसों में सबसे आगे बैठते थे बल्कि इमामिया हाल का मुक़दमा भी उन्होंने बिल्कुल मुफ़त लड़ा, ग़ु$फरानमाब इमामबाड़े की शामें गऱीबा की मजलिस में अकबरी गेट के डा. के के मिश्रा को अपने पूरे परिवार के साथ बरसों मजलिस में आते देखा है, वह ही क्यों? न जाने उस अंधेरे में कितने ग़ैरे मुस्लिम और मुस्लिम जो इमाम हुसैन से अक़ीदत रखते हैं अभी भी ज़रूर आते होंगें।
अब तो यह लगता है कि हमारे कुछ ज़ाकिरीन की कोशिश ही यही है कि हम इमाम हुसैन को सि$र्फ अपने खि़त्ते में महदूद कर दें उनके बारे में न कोई जाने और न उन्हें कोई समझे, इसका $फायदा दुश्मने हुसैन ने भी ख़ूब उठाया और हर एक मजलिस में जाने वालों को यह कहकर रोक दिया कि वहां न जाये इमाम हुसैन का जि़क्र तो क्या बस तबर्रा पढ़ा जाता है शायद यही वजह है कि इस ज़बानी तबर्रे और मेम्बर बैठने वाले चन्द मिटटी के शेरों ने अपने शरपसन्दी से इमाम हुसैन के जि़क्र को इतने जदीद वसायल होने के बावजूद महदूद कर दिया और जो लोग आते थे उन्होंने अपने बच्चों को वहां जाने से रोक दिया और मुक़ालिफ़ ने इसी का $फायदा उठा कर तरह तरह की बेबुनियाद बातें इन मजालिसों के लिये गढ़ ली। हालांकि ऐसे ज़बानी तबर्रे वालों की तादाद बहुत महदूद है लेकिन एक गन्दी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है जैसे पूरे आलमें इस्लामें के चन्द अ$फराद ने इस्लाम को दहशगर्दी का मज़हब कहलाने पर मजबूर कर दिया और वह सिफऱ् इसलिये कि आलमें इस्लामे करबला को उस तरीक़े से नुमायां नहीं कर सका जिस तरीक़े से उसे अपने को करबला से वाबस्ता कर लेना चाहिये था।
आज भी वक़्त हैं कि हम सब बेदार हो जायें और यह समझने समझाने की एक दूसरे को काशिश करें कि करबला की क़ुरबानी एक वक़्ते मोअयना के लिये नहीं, न एक मसलक के लिये बल्कि पूरी इंसानियत के लिये हैं, जब तक इंसान इस रूए ज़मीन पर बाक़ी है तब तक इमाम हुसैन का जि़क्र भी होता रहेगा इसे कोई चाहकर भी रोक नहीं सकता बस ज़रूरत है तो इस बात की कि हम इससे इबरत हासिल करें। वरन मुसलमानों के बारे में यही कहा जाता रहेगा कि:-
मंजऱ भी मुसलमां, पसे मंजऱ भी मुसलमां
गर्दन भी मुसलमां, ख़ंजर भी मुसलमां।।
क्या ग़ुजऱेगी इस्लाम की कश्ती पे ख़ुदारा
तू$फां भी मुसलमान है लंगर भी मुसलमांन।।
सर काटने वालों का भी दावा-ए-इस्लाम
कटते हैं जो हर रोज़ वो हैं सर भी मुसलमान।।
तारीख़ है शाहिद कि बड़ा $फर्क था उन में
लाखों भी मुसलमां थे और बहत्तर भी मुसलमां।।
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