वक़ार रिज़वी…….
जी हां! आज जुमा है, जुमे की अहमियत आप हमसे बेहतर जानते हैं, जो हफ़्ते के 6 दिन अपनी मसरूफ़ियत के बिना पर मस्जिद नहीं जा पाते वह भी आज हर हाल में मस्जिद पहुंचने की कोशिश करते हैं क्योंकि आज उन्हें जमाअत के साथ ख़ुत्बा भी सुनने का मौक़ा मिलता है। इस्लाम के सभी अहकाम बिना किसी मक़सद के नहीं। अगर आप किसी योगा वाले से पूछें तो वह आपको बतायेगा कि नमाज़ की अदायगी कितने योगासन के साथ है, रोज़े के बारे में किसी डाॅक्टर से जानें तो आपको पता चलेगा कि अल्लाह ने सारे सवाब में आपकी जिस्मानी सेहत का भी ख़्याल रखा है, तो जिस जुमे की नमाज़ को इतनी अहमियत हासिल है कि जुमे की अज़ान सुनों तो दौड़ते हुये मस्जिद की तरफ़ जाओ, इसकी भी ज़रूर कोई ख़ास वजह होगी?
जमाअत तो रोज़ होती है लेकिन उसमें शायद इमाम को इतना मौक़ा नहीं मिलता की वह नमाज़ियों से मुख़ातिब हो सके इसलिये अल्लाह ने एक दिन मख़सूस किया। कुछ ऐसे अरकान बनाये कि लोग ज़्यादा से ज़्यादा मस्जिद में एक वक़्त में जमा हो, फिर नमाज़ के साथ ख़ुत्बे को भी लाज़िम किया कि इस दिन इमाम आपसे मुख़ातिब हो और दीन के साथ आपकी दुनियां सवांरने पर आपसे तफ़्सीली गुफ़्तुगू करे। इसीलिये ख़ुत्बे के दो हिस्से रखे गये जिससे एक हिस्से में आपसे दीनी गुफ़्तूगू हो और दूसरे में हालाते हाज़रा पर बयान किया जाता। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? हमारे सभी मस्जिद के इमाम हालाते हाज़रा से कितना अपडेट हैं ? दीन का हिसाब तो आख़ेरत में होगा और वहीं पता चलेगा कि हमारे इमाम ने हमें कहां पहुंचाया ? लेकिन दुनिया का तो यहीं पता चल गया कि हमारे इमाम ने हमारी दुनियावी शअूर में हमारी क्या तरबियत की ? ताज़ा चुनाव के नतीजे इसबात के गवाह हैं कि हमारे तमाम मस्जिदों के इमाम हालते हाज़रा से बिल्कुल नवाक़िफ़ हैं वरन् ऐसे हालात कभी न आते कि डुमरियांगंज की सीट से सैयदा ख़ातून 171 वोटों से हार जाती और यहां डा. अयूब की पीस पार्टी को 10 हज़ार वोट मिलते या टांडा की सीट पर औवैसी का उम्मीदवार 2000 वोट लेकर पहलवान को 1700 वोटों से हरा देता। ऐसी न जाने कितनी सीटें जो जो हमने उनकी झोली में अपनी नसमझी से डाल दीं। इसमें इमाम की तरबियत को भी क्यों इलज़ाम दें जितना गुड़ डालेगें मिठास तो उतनी ही होगी। अपनी ज़िदंगी के सबसे अहम तरीन हिस्सा जहां दीन और दुनियां दोनो का दर्स हासिल करना था वहीं सबसे कम पैसा ख़र्च किया। हमेशा चाहा इमाम सस्ते से सस्ता मिले, घर में हमने अपने बच्चे को पढ़ाने के लिये हर सब्जेक्ट के टीचर को अलग-अलग हज़ारों रूपयें ख़ुशी-ख़ुशी दिये लेकिन मौलवी साहब को कुछ सौ देने में ही जान निकल गई ? शादी लाखों में की लेकिन अगर एक हज़ार का नोट भी मौलवी साहब को दे दिया तो हाथ तो ऊपर रहा ही नज़रें भी मौलवी साहब के शुक्रिये का इंतेज़ार करती रहीं। जिन मस्जिद की कमेटी के मेम्बर लाखों में खेलते हैं उनके भी हाथ मौलवी साहब को देने में हमेशा तंग रहते हैं, तो आप अपने लिये जैसा मौलवी चुनेगें वैसा ही वह आपको दर्स देगा। आज तमाम अफ़राद मौलवियों को भलाबुरा कहते मिल जायेंगें क्योंकि कहते हैं कि जितने भी आलमें इस्लाम में इख़्तेलाफ़ात हैं उनकी बुनियाद में यही लोग हैं इसके बावजूद आज भी हम उन्हीं के पीछे नमाज़ पढ़ते हैं उन्हीं का ख़ुत्बा सुनते हैं। वही हैं जो हमारे आपसी इख़्तेलाफ़ ख़त्म भी कर सकते हैं, वो ही हैं जो आख़ेरत के साथ दुनियां भी संवार सकते हैं लेकिन इसके लिये हमें अपना नज़रिया बदलना होगा हम अपने आफ़िस में किसी छोटी से छोटी नौकरी के लिये भी किसी को रखते हैं तो उसकी शराफ़त व ईमानदारी के साथ यह ज़रूर देखते हैं कि जिस काम के लिये उसे रख रहे हैं वह उसमें कितना माहिर है तो फिर अपनी ज़िंदगी के सबसे अहम मरहले पर कोई भी ? या जो हम में बेहतर वह इमामत कर ले, अब वक़्त के साथ चलना होगा। अब ज़रूरत है कि हमारा इमाम जितना दीन पर उबूर रखे उससे कम हालते हाज़रा से भी वाक़िफ़ न हो। डाॅ. कल्बे सादिक़ साहब ने इसका ज़िक्र कई बार किया कि लेबनान या ईरान में जब यह मसला आया कि अवाम तो मिम्बर से कही बात पर ही अमल करती है तो वहां कि क़यादत ने कई सौ ऐसे अफ़राद तैयार किये कि वह मिम्बर पर जायें और अपने-अपने तरीक़े से लेकिन एक ही बात कहें, उसका नतीजा बेहतरीन कामयाबी की शक्ल में आया। यहां भी अब कुछ ऐसी ही ज़रूरत है कि हमारे इमाम अवाम में इत्तेहाद पैदा करने के बजाये ख़ुद अपने इख़्तेलाफ़ ख़त्म करके अपनी-अपनी मस्जिदों में जहां दीन का दर्स दें वहां हालाते हाज़रा से भी अवाम को बाख़बर रखें तो ही हम मौजूदा हालात का सामना कर सकते हैं।
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